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का अर्थ - ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमका धारक वा ज्ञानावरण कर्मका सर्वथा नाश करनेवाला आत्मा है । उस केवलमात्र आत्माकी अपेक्षा जो ज्ञान उत्पन्न हो वह प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता है इस अव्ययीभाव समाससे अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीन हो ज्ञान प्रत्यक्ष कहे जा सकते हैं । क्योंकि इनकी उत्पत्तिम सिवाय आत्मा के इंद्रिय आदिकी अपेक्षा नहीं होती । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहे जा सकते क्योंकि विना इंद्रिय आदिकी अपेक्षा कीए उनकी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती इसलिये जो केवल आत्माकी अपेक्षासे हो वह प्रत्यक्ष है इस समासगर्भित प्रत्यक्षके लक्षण से मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको प्रत्यक्षज्ञानपने की निवृत्ति हो जाती है ।
अधिकारादनाकारव्यभिचारव्युदासः ॥ ३ ॥
सूत्रकारने 'प्रत्यक्षमन्यत्' अर्थात् परोक्षसे जो भिन्न है वह प्रत्यक्ष है, यह प्रत्यक्षका स्वरूप वतलाया है परंतु परोक्षसे भिन्न तो अवधिदर्शन केवलदर्शन और कुमति आदि विभंगज्ञान भी हैं इसलिये सूत्रकारके मतकी अपेक्षा वे भी प्रत्यक्ष कहे जा सकते हैं ? सो ठीक नहीं । ऊपर के सूत्रों से 'प्रत्यक्षमन्यत्' इस सूत्र में 'ज्ञान' और सम्यक् दोनों शब्दों का अधिकार चला आ रहा है इसलिये 'ज्ञान' और 'सम्यकू' शब्दों के अधिकार से 'परोक्ष ज्ञानोंसे भिन्न जो सम्यग्ज्ञान है वह प्रत्यक्ष है' जब यह 'प्रत्यक्षमन्यत्' इस सूत्रका अर्थ होगा तब अवधिदर्शन और केवलदर्शनको प्रत्यक्षज्ञानपना नहीं हो सकता क्योंकि अवधिदर्शन आदि ज्ञान नहीं, दर्शन हैं । एवं कुमति वा संशय आदि विभंग ज्ञानों को भी प्रत्यक्षज्ञानपना नहीं हो सकता क्योंकि विभंगज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं, मिथ्याज्ञान हैं । इसलिये प्रत्यक्षमन्यत् यह सूत्र निर्दोष है | यदि यहां पर यह शंका हो कि
अध्याय
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