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ज्ञान केवलज्ञान में ये सब विशेषण घट जाते हैं इसलिये वे तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । यहाँपर प्रत्यक्ष विशेष्य और इंद्रियानिंद्रियानपेक्ष आदि विशेषण हैं । प्रत्यक्षका जो 'इंद्रियानिंद्रियानपेक्ष' विशेषण है वह मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी निवृत्तिकेलिये है क्योंकि यदि इतना ही प्रत्यक्षका लक्षण माना जायगा कि 'जो ज्ञान व्यभिचाररहित और सविकल्पक हो वह प्रत्यक्ष है' तो व्यभिचारहित और सविकल्पक तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी है उन्हें भी प्रत्यक्ष कहना पडेगा जो कि बाधित है । यदि 'इंद्रियानिंद्रियानपेक्ष' यह प्रत्यक्षका विशेषण कर दिया जायगा तब मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहे जा सकते क्योंकि अपनी उत्पत्ति में वे इंद्रिय और मनकी अपेक्षा सहित ही है रहित नहीं । 'अतीतव्यभिचारं' यह ) विशेषण कुमति कुश्रुत और कुअवधि विभंग ज्ञानों की निवृत्तिके लिये है । क्योंकि 'जो ज्ञान सविकल्पक ! हो वह प्रत्यक्ष है' यदि इतना ही प्रत्यक्षका लक्षण किया जायगा तो कुमति आदि ज्ञान भी सविकल्पक हैं उन्हें भी प्रत्यक्ष कहना पडेगा । किंतु यदि 'अतीतव्यभिचार' यह विशेषण प्रत्यक्षका रहेगा तो कुमति आदिको प्रत्यक्षपना नहीं आ सकता क्योंकि मिथ्यादर्शनके उदयसे अवास्तविक पदार्थको वास्तविकरूपसे जानना कुमति आदिका विषय है । प्रत्यक्षका सविकल्पक विशेषण अवधिदर्शन और केवलदर्शन की निवृत्तिके लिये है क्योंकि 'जो पदार्थ इंद्रिय और मनकी अपेक्षारहित और व्यभिचाररहित हो वह प्रत्यक्ष ज्ञान है' यदि इतना ही प्रत्यक्ष ज्ञानका लक्षण माना जायगा तो अवधिदर्शन और केवलदर्शन में इंद्रिय और मनकी अपेक्षा नहीं होती और किसी प्रकारका व्यभिचार भी नहीं होता इसलिये उन्हें भी प्रत्यक्ष ज्ञान कहना पडेगा । सविकल्पक विशेषणसे वे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कहे जा सकते क्योंकि दर्शन को निराकार - निर्विकल्पक माना है सविकल्पक नहीं । इस रीति से जो ज्ञान इंद्रिय और मनकी अपेक्षा
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अध्याय
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