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________________ न BRANCISTREA SORRORISTRALIANCCIRRORNERIESREATRE कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है । भेद और अभेदका विकल्प उठाकर पहिले संतानका स्पष्टतासे , खंडन कर आए हैं। यहांपर अवक्तव्यवादीका कहना है कि__ आत्मा पदार्थ माना नहीं जाता। ज्ञान कर्ता आदि बन नहीं सकता । जब कोई पदार्थ किसी रूपसे सिद्ध नहीं हो सकता तब अवाच्य तत्व मानना ही ठीक है क्योंकि समस्त धर्मों में किसी प्रकारका हूँ कर्ता कर्म आदि व्यापार नहीं बन सकता इसलिये वेवचनके विषय नहीं हो सकते इसलिये ज्ञानके कर्तृत्व आदिके निषेधसे (हमारा अवक्तव्यवादियोंका) अभिमत सिद्ध होनेसे हमारे घरमै रत्नोंकी वर्षा के समान अत्यन्त हर्ष है । सो ठीक नहीं । उनको अवाच्य कहना भी तो वचनका ही विषय है यदि सब धर्मोंको सर्वथा अवाच्य माना जायगा तो अवाच्य धर्म भी वचनसे न कहा जा सकेगा इसलिये जिस तरह मेरी मा बंध्या है यह कहना स्ववचन बाधित है उसीतरह सब धर्मोंको अवाच्य मानकर अवाच्यत्व धर्मका कहना भी स्ववचन बाधित है। तथा जीव अजीव आदि तत्व प्रमाणसिद्ध है । यदि सर्वथा अवाच्य ही तत्व मान लिया जायगा तो जीव अजीव आदि तत्वोंके ज्ञानका उपाय ही लुप्त हो जायगा । इसलिये केवल अवाच्य तत्व नहीं माना जा सकता। और यह वात है कि-- जिसतरह जिस मनुष्यको सफेद और नीला आदिका ज्ञान है वही मनुष्य यह कह सकता है कि 5 यह पदार्थ सफेद है नीला आदि नहीं किंतु जिसे यह सफेद है और यह नीलाआदि नहीं ऐसा ज्ञान नहीं ॐ वह उपर्युक्त विशेषको नहीं जान सकता उसी तरह जो मनुष्य कर्तृसाधन और करण आदि साधनका जानकार है वही यह विशेष जान सकता है कि यह कर्तृसाधन है और यह करण आदि साधन है किंतु जिसे यह ज्ञान नहीं कि यह कर्तृसाधन है और यहे करण आदि साधन नहीं, वह उपर्युक्त विशेष नहीं' २२२
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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