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SPRISONAK
माता
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* करानेमें कारण है और कालके कहनेसे समस्त पदार्थोंका ज्ञान होता है) इसलिए समस्त पदार्थों के ज्ञानमें है कारण होनेसे काल द्रव्यमें सूत्रका ग्रहण करना सार्थक है, वह व्यर्थ नहीं कहा जा सकता।
नामादिषु भावग्रहणात्पुनर्भावागहणमिति चेन्नौपशमिकाबपक्षत्वात् ॥२१॥ नामस्थापना' इत्यादि सूत्रमें भाव शब्दका ग्रहण कर आये हैं। उसी भाव शन्दके ग्रहणसे कार्य ६ चल जायगा फिर 'सत्संख्याक्षेत्र' इत्यादि सूत्रमें भाव शब्दका उल्लेख करना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। ६, हूँ उक्त सूत्रमें जो भाव शब्दका ग्रहण किया गया है उसका तात्पर्य यह है कि जो द्रव्य न हो वह भाव है हूँ है अर्थात् जो पर्याय भविष्यत् कालमें होनेवाला हो उसको वर्तमानमें कह देना, जिसतरह राजपुत्र आगे है है जा कर राजा होनेवाला है उसे अभीसे राजा कह देना द्रव्य निक्षेप है और जो पदार्थ वर्तमानमें जिस है
पर्यायसे मौजूद है उसे वैसा ही कहना जिसतरह 'राजाको राजा' यह भाव निक्षेप है । द्रव्यनिक्षेप भाव है निक्षेप न कहा जाय इसलिये वहां पर भाव शब्दका उल्लेख किया गया है किंतु 'सत्संख्याक्षेत्रेत्यादि ।
सूत्रमें जो भाव शब्दका उल्लेख है उससे औपशमिक क्षायिक आदि भावोंका ग्रहण है जिसतरह औप-8 कशमिक भी सम्यग्दर्शन कहा जाता है और क्षायिक आदि भी सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इसरीतिसे है
दोनों भाव शब्दोंका जुदा जुदा प्रयोजन होनेके कारण एक जगह भाव शब्दके कहनेसे दूसरी जगहके भाव शब्दका प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिये सत्संख्या आदि सूत्रमें ग्रहण किया गया, भाव हूँ शब्द व्यर्थ नहीं। अथवा
विनेयाशयवशो वा तत्त्वाधिगमहेतुविकल्पः ॥२२॥ संसारमें कोई शिष्य तो ऐसे होते हैं थोडा कहने पर ही विशेष तात्पर्य समझ लेते हैं और अनेक ,