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________________ RORESORRORISTORICROTRIOTISRAEMORRORIES हूँ सत्संख्याक्षेत्रेत्यादि सूत्रमें भी जो संख्या शब्द है उसका भी अर्थ भेदों का कहना है इसलिये विधान ₹ शब्दके कह देनेसे ही संख्या शब्दके कहनेका प्रयोजन निकल आता है फिर सत्संख्याक्षेत्रेत्यादि सूत्र में है। है संख्या शब्दका ग्रहण व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं । प्रकार गणना और भेद गणनामें भेद है। सम्यग्हाष्टके उपशम-सम्यग्दृष्टि क्षायिक-सम्यग्दृष्टि आदि भेद हैं यह तो प्रकार-गणना है और उसके भेदोंके भेदों की भी गिनती करना जिस तरह उपशम सम्यग्दृष्टि इतने हैं, क्षायिक सम्यग्दृष्टि इतने हैं, यह भेद-18 गणना है। इस विशेषताका ज्ञान संख्या शब्दसे होता है, इसलिये उत्तरोचर भेदोंकी गणनाकी विशेषता जनानेमें कारण होनेसे संख्या शब्दका ग्रहण व्यर्थ नहीं हो सकता। विशेष-यद्यपि विधान शब्दके कहनेसे ही मूल पदार्थके भेदोंका वा भेदोंके भेदोंका ग्रहण हो है सकता है परन्तु विधान शब्दके मूल पदार्थके भेदोंके ग्रहण करनेमें ही शक्ति मानी है इसलिये भेदोंके है है भेदोंका ग्रहण करने के लिये संख्या शब्दका उल्लेख सार्थक है । वास्तवमें तो मूल पदार्थके भेदोंका वा उसहै के भी भेदोंका विधान शब्दसे ही ग्रहण हो सकता है तो भी संख्या शब्दका उल्लेख विशेष स्पष्टताके लिये किया गया है। क्षेत्राधिकरणयोरभेद इति चेन्नोक्तत्वात् ॥ १६ ॥ __जिसमें पदार्थ रहे उसका नाम अधिकरण है यही अर्थ क्षेत्रका भी है। निर्देशस्वामित्वादि सूत्रों हूँ अधिकरण शब्दका पाठ रक्खा गया है इसलिये अधिकरणके कहनेसे ही क्षेत्र शब्दके कहनेका प्रयोजन है है निकल आता है फिर सत्संख्याक्षेत्रेत्यादि सूत्रमें क्षेत्र शब्दका ग्रहण करना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। अधिकरण शब्द व्याप्य है थोडी जगहको धारण करनेवाला है। क्षेत्र शब्द व्यापक है अधिक जगह STUMERGRESSESSAURABISESGRLX P
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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