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________________ KASHIBITAASANNARY ग्दर्शनका 'नाम वा'सम्यग्दर्शनकी स्थापना आदि सम्यग्दर्शन' हैं यह सम्यग्दर्शनका निर्देश है। सम्य9 ग्दर्शन आत्माके होता है इसलिये उसका स्वामी आत्मा है वा अपना स्वामी आप ही सम्यग्दर्शन है। माता दर्शन मोहका उपशम क्षय आदि.सम्यग्दर्शनके अंतरंग कारण हैं और वाह्य कारण धर्मोपदेश' शास्त्र हूँ स्वाध्याय आदि हैं अथवा अपना कारण स्वयं सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शनका स्वामी होनेके योग्य हूँ आत्मा है इसलिये वही अधिकरणं है । सम्यग्दर्शनकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्टं स्थिति है कुछ अधिक छ्यासठि सागर प्रमाण है अथवा औपशमिक और क्षायोपशमिककी स्थिति 'सादि सांत है है और क्षायिक सम्यग्दर्शनकी सादि अनंत है। सामान्यसे सम्यग्दर्शन एक प्रकारका है और विशेष है रूपसे उसके निसर्गज और अधिगमज ये दो भेद हैं वा औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन भेद हैं अथवा संख्याते असंख्याते और अनंते पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा जाता है इस-* लिये उसके संख्यात असंख्यात और अनंत भी भेद हैं। जीव अजीव आदि तत्वोंको भले प्रकार जानना ज्ञान है अथवा ज्ञानका नाम ज्ञानकी स्थापना आदि भी ज्ञान है यह ज्ञानका निर्देश है। ज्ञान आत्मामें रहता है इसलिये ज्ञानको स्वामी आत्मा है अथवा ज्ञानका आकार भी ज्ञानका स्वामी है । ज्ञानावरण आदि कर्मोंके क्षयोपशम क्षय आदि ज्ञानके कारण हैं अथवा स्व-( सम्यग्दर्शन) स्वरूपकी प्रगट होनेकी शक्ति भी ज्ञानका कारण है। ज्ञान आत्मा * में रहता है । इसलिये उसका अधिकरण आत्मा है अथवा अपने आकारमें भी ज्ञान-रहता है इसलिये ज्ञानका आकार भी ज्ञानका अधिकरण है । मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान इन चार ॐ ११ ६, क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी स्थिति सादि सांत है । क्षायिकज्ञान-केवलज्ञानकी स्थिति सादि अनंत है। HerkesterHUGHUGASGASKASTIK PRAKASHNEKHA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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