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| वचनकृत आसू और उनसे विपरीत मोठे हितकारी आदि वचन बोलनेसे शुभ वचनकृत आसूव होता है | मिथ्या शास्त्रोंके चितवन से ईर्षा द्वेष आदि रखने से अशुभ मानस आसूव होता है । और उनसे दूर रहनेसे शुभ मानस आसूव होता है । इसप्रकार यह आस्रवतत्त्व के निर्देश आदिका निरूपण है ।
निश्रयनयसे जीवके प्रदेश और कम के प्रदेशों का जो आपसमें घनिष्ठरूप से मिल जाना है वह बंध है और व्यवहारनय से बंधके नाम स्थापना आदि भी बंध हैं । बंधके फलका संसारी जीव भोग करता है इसलिये निश्रयनयसे तो उसका स्वामी संसारी जीव है अथवा संसारी जीव और कर्म दोनों ही बंधके होने में कारण हैं इसलिये व्यवहारनयसे जीवका स्वामी कर्म भी है। मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय और योग ये बंधके कारण हैं अथवा बंधविशिष्ट आत्मा भी बंधका कारण है । जो वस्तु स्वामिसंबंध के योग्य होती है स्वामी कही जाती है वह, वस्तु अधिकरण भी मान ली जाती है । बंधके स्वामी होने योग्य जीव और कर्म हैं इसलिये वे ही उसके आधिकरण हैं।
यदि यहां पर यह शंका की जाय कि जो स्वामिसंबंध के योग्य है वह अधिकरण नहीं हो सकता क्योंकि स्वामिसंबंध के योग्य पदार्थ भिन्न होता है और अधिकरण पदार्थ भिन्न होता है । 'जहाँ पर स्वामिसंबंध रहता है वहां पर षष्ठी कारक विभक्ति होती है और अधिकरणमें सप्तमी कारक विभक्तिका विधान है। जिसतरह 'राज्ञः पुरुषः' राजाका पुरुष, यहां स्वस्वामिसंबंध है इसलिये 'राज्ञः' यहां पर षष्ठी विभक्ति है और 'कटे काकः" चटाई पर काक बैठा है यहां पर अधिकरणकी विवक्षा है इसलिये 'कटे' यहां सप्तमी विभक्ति है इसरीतिसे जब स्वस्वामिसंबंध और अधिकरण विरुद्ध पदार्थ हैं तब स्वस्वामिसंish योग्य ही अधिकरण है यह कहना बाधित है ? सो ठीक नहीं । कारकों की प्रवृत्ति वक्ताकी इच्छा
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