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________________ POROASTRASTISAR OMATOLADKALAC-AAREEREMOLECREDICINE विशुद्ध व्याघातरहित एक हाथ प्रमाण मनुष्याकार पुतला जो मुनिके मस्तकसे निकलकर जाता है वह हूँ आहारक शरीर है और उससे होनेवाले योगको अहारककाययोग कहते हैं। जबतक आहारक शरीर है पूर्ण न हो तबतक वह आहारकमिश्र कहा जाता है और उससे होनेवाले योगको आहारकमिश्रयोग है । कहते हैं। तथा ज्ञानावरण आदि कर्मों के समूहका नाम कार्माण शरीर है ।" सात प्रकारके काययोगोंमें है औदारिक और औदारिकमिश्र ये दो काययोग तो मनुष्य और तियंचोंके होते हैं । वक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र ये दो काययोग देव और नारकियोंके होते हैं। आहारक और आहारकमिश्र ये दो काय * योग ऋद्धि प्राप्त मुनियों के होते हैं और कार्माण काययोग जो जीव विग्रहगतिमें हैं उनके और समु-* है घात करनेवाले केवलियोंको होता है "एक शरीरको छोडकर दूसरे शरीरकी प्राप्तिके लिये जो गमन हूँ करना है वह विग्रहगति है' मूल शरीरको न छोडकर तैजस कार्माणस्वरूप उत्तर देहके साथ साथ जो है जीवके प्रदेशोंका बाहर निकलना है वह समुद्घात है और वह वेदना १ कषाय २ वैक्रियिक ३ मारणां६ तिक ४ तैजस ५ आहारक ६ और केवलके भेदसे सात प्रकारका है। अथवा आस्रवके भेद शुभ और अशुभ भी हैं । हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंमें प्रवृत्त होनेसे अशुभकायकृत आसूव और उनसे दूर रहनेसे शुभ-कायकृत आस्रव होता है। कठोर वचन बोलना कोसना चुगलीखाना और परको पीडा पहुंचानेवाला वचन बोलना आदिसे अशुभ २विग्रहो देखा, तदर्या गतिविग्रहगतिः । राजवार्तिक पृ० ९५। २ मृलसरीर मछंडिय उत्तरदेहस्सजीवपिंडस्स। णिग्गमणं देहादो है होदि समुग्धादणामं तु ॥ ६६७ ।। जीवकांड गोम्पटसार । ३ वेपण कसाय वेगुब्बियो य मरणंतियो समुग्पादो। तेजाहारो छटो सत्तमओ केवलीणं तु ॥ ६६६ ॥ जीवकांड गोम्मटसार । AMRO
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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