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________________ भाषा PASSSCREENDIN56-199RNA है आदि अंतरंग विभूतिके धारक पाप और कर्मों के नष्ट करनेवाले अंतिम तीर्थंकर श्रीमहावीर भगवानको है नमस्कार कर मैं ग्रंथकार 'श्री अकलंक देव' तत्त्वार्थराजवार्तिक ग्रंथकी रचना करता हूँ। श्रेयोमार्गप्रतिपित्सात्मद्रव्यप्रसिद्धः ॥१॥ अर्थ-ज्ञान दर्शन स्वभाव आत्मा कल्याण (मोक्ष) प्राप्त कर सकता है यह बात प्रसिद्ध है इसीलिये उस कल्याण (मोक्ष) के उपायके जाननेकी इच्छा होती है । अर्थात् मोक्ष प्राप्तिकी योग्यता रखनेवाला आत्मद्रव्य प्रसिद्ध है इसीलिये मोक्षके मार्गके जाननेकी अभिलाषा होती है। वह किसप्रकार ? चिकित्साविशेषप्रतिपत्तिवत् ॥ २॥ अर्थ-जिसप्रकार रोग दूर होनेका सुख जिसे मिल सकता है ऐसे रोगीके रहते हुए ही रोग, 9 निदान एवं उसे दूर करनेका उपाय बतलाया जाता है उसी प्रकार आत्माके रहते हुए ही मोक्ष मार्गका ₹ निरूपण किया जासकता है। ज्ञानदर्शन स्वभाववाला-मोक्षपात्र-आत्मा प्रसिद्ध है इसीलिये मोक्षके मार्गकी व्याख्या करना स्वभावसिद्ध एवं न्यायोपाच है। ___ सर्वार्थपूधानत्वात् ॥३॥ . · संसार में घूमनेवाले प्राणियोंको चारों पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ ही परम हितकारी और मुख्य है, प्रधान पुरुषार्थके लिये जो प्रयत्न किया जाता है वही सार्थक है । इसलिए जिस उपायसे मोक्ष मिल * सके वह उपाय अवश्य वतलाना चाहिये इसलिये मोक्षका निरूपण युक्त है। यदि यहां पर यह कहा जाय कि GRESABPREPARENEFTERSANSAR S SISRO
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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