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________________ १०रा० १६७ के द्वारा निश्चित पदार्थ के एक देशको विषय करनेवाला है वह सम्यगकांत है तथा किसी वस्तुके एक धर्मका निश्चय कर उस वस्तुमें रहनेवाले अन्य समस्त धर्मों का निषेध कर देना यह मिथ्यैकांत है क्यों कि प्रत्येक वस्तु अनेक धर्म स्वरूप है इसलिये किसी एक धर्मके जान लेनेपर दूसरे धर्म भी अज्ञात रूप से उसमें मौजूद हैं उनका अभाव नहीं हो सकता । तथा युक्ति और आग़म दोनोंसे अविरुद्ध, अस्तित्व नास्तित्व आदि एक दूसरे के प्रतिपक्षी अनेक धर्मो के स्वरूपको निरूपण करनेवाला सम्पगनेकांत है और | सम्यगनेकांतले वस्तुका जो वास्तविक स्वभाव निश्चित है उस स्वभाव स्वरूप वा उससे अन्य स्वभावस्वरूप वस्तुसे रहित दूसरोंके द्वारा केवल कल्पनामात्र वचन आडम्बर स्वरूप जो अनेकांत है वह मिं ध्यानेकांत है । वहां पर सम्यगेकांत नय है और सम्यगनेकांत प्रमाण है । सम्यकांत से एक धर्मका निश्चय होता है इसलिये वह नयकी विवक्षासे है । सम्यगनेकांत से अनेक धर्मोका निश्चय होता है इसलिये वह प्रमाणकी विवक्षासे है इसरीतिसे प्रमाणको विवक्षासे होनेवाला सम्यगनेकांत जिस तरह प्रमाणीक माना जाता है उसी तरह नयकी विवक्षाले होनेवाला सम्यगेकांत भी प्रमाण है । संसार में यह वात प्रसिद्ध है कि भिन्न २ अवयवोंके रहते ही अवयवोंका समूहरूप अवयवी रह सकता है | यदि अवः यव नहीं हों तो अवयवी भी नहीं हो सकता । शाखा मूल पत्ते आदि अवयवोंके रहते ही अवयवी वृक्ष है। यदि शाखा पत्ते आदि न हों तो वृक्ष ही नहीं हो सकता क्योंकि शाखा आदि अवयवोंका समूह ही वृक्ष है | एकांत, अनेकांतका अवयव है । अनेकांत यदि सर्वथा अनेकांत ही रहै, एकांत न हो सके तो एकांत के अभाव से उसका समूह रूप अनेकांत भी न हो सकेगा इसप्रकार जो विशेष अनेकांतके विना नहीं हो सकते उनका अभाव हो जायगा । विशेषोंके अभाव से कोई भी पदार्थ न सिद्ध होगा । फिर मा १६७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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