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________________ CREASU इसप्रकार कथंचित् घट है, कथंचित् घट नहीं है इत्यादि रूपसे यह सप्तभंगी द्रव्यार्थिक और 5 रा० ॐ पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जीव अजीव आदिमें वा सम्यग्दर्शन आदिमें घटा लेनी चाहिये । जिसतरह उन्मच पुरुष हठसे मिथ्यावातको सत्य मानकर यह ऐसे और यही है ऐसा कहता है इसलिये उसका डू कहना मिथ्या समझा जाता है उसीतरह केवल द्रव्यार्थिक नयके मानने पर उसके दारा निश्चित तत्त्व भी मिथ्यातत्व ही है क्योंकि तत्व, द्रव्य और पर्याय दोनों स्वरूप हैद्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा केवल द्रव्य ही तत्व है यह माना जाता है इसलिये वह मिथ्या है । उसीप्रकार केवल पर्यायार्थिक नयके मानने पर उसके दारा निश्चित तत्व भी मिथ्यातत्व है क्योंकि तत्व, द्रव्य और पर्याय दोनों स्वरूप माना हे पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा केवल पर्याय ही तत्व है यह माना जाता है इसलिये उन्मच पुरुषके माने तत्वके समान वह मिथ्या ही है परंतु जिसतरह समझदार मनुष्य जो पदार्थ जैसा होता है उसे वैसा ही मानता है है उसीतरह अनेकांतवाद भी नय आदिकी अपेक्षासे पदार्थोंका यथार्थरूपसे कथन करता है इसलिये ५ उसके द्वारा जो पदार्थ निश्चित है वह यथार्थ है उसके द्वारा निश्चिततत्व मिथ्यातत्व नहीं कहे जा सकते। हूँ इसीतरह जिसका यह कहना है कि केवल अवक्तव्य ही भंग है-कोई भी पदार्थ किसी रूपसे नहीं कहा है जा सकता, उसका कहना भी स्ववचनविरोधी होनेसे मिथ्या है क्योंकि जिसतरह कोई पुरुष अपनेको 2 यह कहे कि मैं मौनी हूं-कुछ भी नहीं बोलता चालता, तो उसका वचन स्ववचन विरोधी माना जाता है क्योंकि मोनी भी बनता है और यह भी कहता फिरता है कि मैं मौनी हूं। उसीतरह केवल अवक्तव्य भंग माननेवालेका कहना भी स्ववचनबाधित है क्योंकि बनता तो वह अवक्तव्य मतका अनुयायी है परंतु यह कहता ही फिरता है कि कोई पदार्थ किसी रूपसे कहा नहीं जाता इसलिये सब अवक्तव्य है SOCIETECHSCRIBRREARLKHABAR RE RUPARE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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