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________________ ROFESSIBALEGISLCANORASSHRISHADARBARIBPSecte यत्न किया जाता है वह न करना होगा क्योंकि ज्ञेयाकार रूपसे घटका होना निश्चित नहीं तथा जिस तरह ज्ञेयाकारकी अपेक्षा घटका होना माना जाता है उस तरह ज्ञानाकारकी अपेक्षा भी घटका होना माना जायगा तो पट आदिके ज्ञान के समय भी ज्ञानाकारकी समीपता है इसलिये पट आदिका ज्ञान होनेपर पट आदिका व्यवहार होना चाहिये परन्तु उस समय भी घटका व्यवहार होगा इस रीतिसे किसी भी पदार्थका ज्ञान क्यों न हो वहांपर घटका व्यवहार न रुक सकेगा। इसप्रकार उपर्युक्त रीतिसे है स्वरूप पररूपकी अपेक्षा घटका घटपना और अघटपना अर्थात् स्यादास्त घटः-कथंचित् घट है, स्यानास्ति घटः, कथंचित् घट नहीं है इन दो भंगोका विस्तारसे स्वरूप कह दिया गया। परन्तु जिस तरह घट और पट आपसमें भिन्न हैं और दोनों एक जगह नहीं रह सकते इसलिये उनका सामानाधिकरण्य नहीं, उस तरह घटत्व और अघटत्व दोनों भिन्न नहीं, घटत्व अघटत्व दोनोंका आधार घट ही है । यदिघटत्व और अघटत्वमें भेद माना जायगा तो एक ही घटमें दोनोंका रहना न बन 9 सकेगा और घटत्व अघटत्वके एक जगह रहनेसे जो घट ज्ञान और घट नामकी प्रवृत्ति होती है वह भी न हो सकेगी तथा घटत्व और अघटत्वका अविनाभाव संबंध है। घटत्वके विना अघटत्व नहीं रह सकता हूँ और अघटत्वके विना घटत्व नहीं रह सकता। यदि घटस अघटत्वका आपसमें सर्वथा भेद मान लिया जायगा तो दोनों हीका अभाव हो जायगा फिर घट है वाघट नहीं है यह जो घटत्व और अघटत्व दोनोंके आधीन व्यवहार होता है वह नष्ट हो जायगा इसलिये घटत्व अघटस दोनों स्वरूप घटका मानना ठीक है इस तरह 'स्याद्घटवाघटश्च' कचित् घट है कथंचित् घट नहीं है अर्थात्घटत्व अघटत्व दोनों स्वरूप घट हे यह तीसरा भंग युक्तिसिद्ध ठहरता है। MASALA-SGARERARASTR-GAORANGREHSGABANSION
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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