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________________ १०रा० १५१ इसलिये जिसका यह कहना था कि यदि नाम स्थापनेत्यादि सूत्र में तत् शब्दका ग्रहण न किया जायगा तो अत्यंत पास में रहनेवाले जीव अजीव आदिका ही नाम स्थापना आदिके साथ संबंध होगा सम्प|ग्दर्शन आदिका नाम आदिके साथ सम्बन्ध न हो सकेगा, उसका कथन बाधित हो चुका | तब फिर सूत्रमें तत् शब्दका ग्रहण क्यों है ? इस वातका समाधान वार्तिककार देते हैं सर्वभावाधिगमार्थं तु ॥ ३८ ॥ जीव अजीव आदि अप्रधान और सम्यग्दर्शन आदि प्रधान, सबका नाम आदि निक्षेपों के साथ संबंध हो इसलिये सूत्र तत् शब्दका ग्रहण किया गया है। यदि तत् शब्दका ग्रहण सूत्रमें न किया जायगा तो प्रधान और अंप्रधानमें प्रधानका ही ग्रहण होता है इस नियमके अनुसार सम्यग्दर्शन आदि प्रधानोंके साथ ही नाम आदिका सम्बंध होगा जीव अजीव आदि अप्रधानोंका संबंध न हो सकेगा । तत् शब्दके रहते सबका ग्रहण होगा इसलिये उसका उल्लेख करना निरर्थक नहीं । जहां पर नाम आदि निक्षेपोंका संबंध बतलाया है वहां सम्यग्दर्शन और जीवको प्रधान रक्खा है परन्तु जिसतरह उनके साथ नाम आदिका संबंध है उसी तरह ज्ञान चारित्र और अंजीव आसव आदि सबके साथ समझ लेना चाहिये ॥ ५ ॥ जिनका ऊपरसे अधिकार आरहा है और नाम स्थापना आदि निक्षेपोंके साथ संबंध रहनेसे जिनका वाच्य वाचक संबंध अव्यभिचरित है - निर्दोषरूप से है उन सम्यग्दर्शन आदि वा जीव आदिका वास्तविक ज्ञानमें कौन कारण है— किनके द्वारा उनका वास्तविक ज्ञान होता है ? यह सूत्रकार बतलाते हैं भाषा १५१
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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