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________________ GECAUGUAGES त्रिमके प्रकरणका ज्ञान न हानेके कारण उसे दोनों हीका एक साथ ज्ञान होता है और वह 'भ्रममें पड पराइ जानेके कारण जबतक यह निधय नहीं कर लेता कि किस गोपालक वा कटेजकको लाऊं तबतक उन १४७ के लानेमें वह प्रवृत्त नहीं होता इसलिये जब अर्थ और प्रकरणके विना कृत्रिम और अकृत्रिम दोनों | पदार्थोंका एक साथ बोध होगा तब कृत्रिमको प्रधान मानकर नाम आदिसे होनेवाले व्यवहारको उप|चारसे माननेपर भी कोई दोष नहीं, यह कहना युक्तिवाधित है। तथा . अनेकांतात ॥३१॥ एकांतसे हमारा यह भी कहना नहीं कि यह कृत्रिम ही है वा अकृत्रिम ही है किंतु सामान्यकी 5 अपेक्षा अकृत्रिम और विशेषकी अपेक्षा कृत्रिम इसप्रकार कथाचित् अकृत्रिम और कथंचित् कृत्रिम यह | हम मानते हैं अर्थात् सामान्यसे तो अकृत्रिम-स्वभावसिद्ध ही अर्थका बोध होता है किंतु कृत्रिम पदा| के जब अर्थकी विशेषता रहती है वा प्रकरणकी विशेषता रहती है तब विशेषकी विवक्षासे कृत्रिम है। ६ अर्थकी प्रतीति होने लगती है इसरीतिसे अपनी अपनी अपेक्षा कृत्रिम और अकृत्रिम दोनों ही बल | है वान हैं जहां अकृत्रिमकी विवक्षा रहती है वहां अकृत्रिम मुख्य और कृत्रिम गौण एवं जहां कृत्रिमकी PI विवक्षा रहती है वहां कृत्रिम मुख्य और अकृत्रिम गौण गिना जाता है तब कृत्रिम और अकृत्रिममें कृत्रिम बलवान है और उसीका ग्रहण होता है यह कहना अनेकांत प्रमाणबाधित है । और भी | यह बात है नयद्यविषयत्वात् ॥३२॥ मूलमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकके भेदसे नय दो प्रकारका है यह ऊपर कहा जा चुका है नाम RECRURALRAMEBORGEK १९०
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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