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________________ मांषा सरा निर्जीयते यया निर्जरणमात्रं वा निर्जरा ॥ १२॥ .. _ जिसके द्वारा कर्मोंका एकदेश रूपसे क्षय हो अथवा जो एकदेशरूपसे कौका क्षय होना है वही १०९६ निर्जरा है। मोक्ष्यते येन मोक्षणमात्रं वा मोक्षः ॥१३॥ जिसके द्वारा सर्वथा कर्मोंका नाश हो अथवा जो समस्त कर्मों का नाश होना है वही मोक्षतत्त्व कहा या जाता है । इसप्रकार 'जीवश्च अजीवश्च आस्रवश्व बंधश्च संवरश्च निर्जरा च मोक्षश्च जीवाजीवासवबंधजा संवरनिर्जरामोक्षा' यह इतरेतरयोग बंदसमास है । परस्पर सापेक्ष पदार्थों का जो आपसमें संबंध होना || है वह इतरेतरयोग है । इस रीतिसे जीव अजीव आदिको व्युत्पचिका कथन कर दिया गया अब | उनका लक्षण कहा जाता है। चेतनास्वभावत्वात्तद्विकल्पलक्षणो जीवः ॥१४॥ __जीवका स्वभाव चेतना है। अपने असाधारण लक्षण चेतनाहीसे वह अजीव आदि पदार्थों से भिन्न | माना जाता है। ज्ञान दर्शन आदि उस चेतनाके भेद हैं इस रीतिसे जिसके संसर्गसे आत्मा जाननेवाला | देखनेवाला करनेवाला और भोगनेवाला कहा जाता है वह चेतना पदार्थ है और जिसके अंदर वह ॥ चेतना पाई जाय वह जीव पदार्थ है इसलिये जीवका लक्षण चेतना है। तद्विपरीतत्वादजीवस्तदभावलक्षणः ॥१५॥ __जीवसे विपरीत, अचेतन स्वभावका धारक और ज्ञान दर्शन आदि चेतनाका जिसके अंदर ॥ अभाव हो वह अजीव है। यदि यहांपर अभावको तुच्छ पदार्थ माननेवाला यहशंका करै कि इस अजी RECEOESARILABORAEBARECEGOR NSURANUSHINAGEMSRPUR -
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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