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भाषा
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नहीं, यह कोई नियम नहीं किसी एक समय गमन करने पर भी हर एक अवस्थामें वह गाय कही जाती 9 है अथवा बैठी खडी लेटी हुई अवस्थामें भी 'गाय' ऐसा व्यवहार होता है वह न हो सकेगा उसी तरह
'जीवतीति जीवः' जो जीवे वह जीव है यहां व्युत्पचिलभ्य अर्थ प्राणोंसे जीना है वहां पर सदा प्राणोंसे 5 % जीना ही चाहिये यह कोई नियम नहीं किंतु किसीसमय प्राणोंसे जीनेपर भी जीव कहा जा सकता है। दू
सिद्ध यद्यपि इससमय नहीं जीते तथापि सिद्धपर्यायसे पहिले जीते थे इसलिये उन्हें जीव कहना बाधित है नहीं कहा जा सकता।
तद्विपर्ययोऽजीवः॥८॥ न जो किसी भी प्राणसे न जीवे । कहे हुए प्राणोंमें जिसमें किसी भी प्राणका संभव न हो सके वह * अजीव है । अर्थात् जड-अचेतनको अजीव कहा जाता है।
आस्रवत्यनेनास्रवणमात्रं वास्रवः ॥९॥ जिसके द्वारा कर्म आवे वा जो कर्मोंका आना स्वरूप हो वह आस्रव है।
' ' ' बध्यतेऽनेन बंधनमात्रं वा बंधः॥१०॥ जिसके द्वारा आत्मा बांधा जाय परतंत्र किया जाय अथवा परतंत्र करना-बंध होना वह बंध है।
संवियतेऽनेन संवरणमात्रं वा संवरः॥११॥ जिसके द्वारा कर्मोंका आगमन रोका जाय अथवा कोंके आगमनका रुकना ही संवर है।... १ निश्चयरूपसे चेतना ही प्राण है वह सब जीवोंमें सदा त्रिकाल पाई जाती है, सिद्धोंमें भी वह सदा रहती है इसलिये वे 5 भी-सदा जीवनगुण विशिष्ट रहते हैं। . .
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