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________________ । न्नात्मक मंग्रह ऋजुसूत्रस्वरूप है । छठा ऋजुसूत्रस्वरूप और आभिन्नात्मक संग्रह ऋजुसूत्रस्वरूप है एवं सातवां संग्रह स्वरूप, ऋजुसूत्रस्वरूप और अभिन्नात्मक संग्रह ऋजुसूत्रस्वरूप है। ऊपर जो अर्थनय कही गई हैं उनसे अवशिष्ट नय अर्थात् शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन शब्द नय हैं। ये तीनों नय पर्यायोंको विषय करती हैं इसलिए ये पर्यापार्थिक हैं तथा इन सबका विषय व्यंजन पर्याय हैं । इन शब्दनयोंके द्वारा दो प्रकारके वचनोंकी कल्पना है-एक अभेदरूपसे कथन करना और हूँ दूसरा भेदरूपसे कथन करना। शब्दनयके अंदर एक ही अर्थके वाचक अनेक शब्द माने हैं इसलिए है अनेक पर्याय शब्दोंके रहनेपर भी एक ही अर्थका प्रतिपादन होनेसे अभेदरूपसे कथन है। समभिरूढ । नयमें चाहें घट प्रवृचिका कारण हो चाह प्रवृचिका कारण न हो तो भी सामान्यरूपसे उसका अभिन्न रूपसे ही अभिधान है अर्थात इस नयमें भिन्न भिन्नरूपसे अर्थोंका ग्रहण नहीं होता इसलिए यहां भी अभेदरूपसे कथन है तथा एवंभूत नयमें प्रवृत्ति कारणभूत भेदस्वरूप एक ही अर्थका कथन है अर्थात् इंद्र आदि शब्दोंकी जिस जिस कालमें जैमी जैसी प्रवृचि होती है उसीके अनुकूल अर्थ लिया जाता है इसलिए यहांपर भेदरूपसे कथन है । अथवा एक ही अर्थमें अनेक शब्दों की प्रवृचिका होना १ और प्रत्येक अर्थके लिए भिन्न भिन्न शब्दोंकी रचना करना २ इस रूपसे भी वचनोंकी दोतरहकी कल्पना हो सकती है। शब्दनयमें अर्थ एक ही रहता । १ है ओर उसके वाचक पर्यायस्वरूप शब्द अनेक माने हैं। समभिरूढनयमें शब्दको प्रवृत्तिका कारण नहीं १-प्रदेशवत्त्व गुणके विकारको व्यंजनपर्याय कहते हैं यह बात ऊपर लिखी जा चुकी है। अर्थात द्रव्यकी पर्यायको व्यजनपर्याय और गुणाकी पर्यायको अर्थपर्याय कहते हैं। RECHOGYPROGESCHICHT*672% Lesome FREERIES. १२०५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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