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________________ मध्याय १०रा० मावा १९७॥ | अपेक्षा आत्मा है क्योंकि किसी न किसी धर्मका आश्रय आत्मा है। यह बात नहीं कि वह किसी भी धर्मका || आश्रय न हो। इसलिए किसी धर्मकी विवक्षामे स्यादस्ति आत्मा यह प्रथम भंग हुआ। एवं सामान्यरूपसे || || समस्त धर्मोंका अनाश्रय रूपसे आत्मा नहीं है इस रीतिसे धर्मसामान्य सम्बन्धकी अपेक्षा 'स्यान्नास्त्ये || वात्मा' यह दूसरा भंग है । तथा धर्मसामान्य संबंधकी अपेक्षा आत्माकी सचा और उसके अभावकी || अपेक्षा असचाकी एक साथ विवक्षा रहनेपर स्यादवक्तव्य यह तीसरा भंग हैं एवं जिससमय उन दोनोंकी | क्रमसे विवक्षा होगी उससमय स्यादस्तिनास्ति यह चौथा भंग होगा॥८॥ तथा___ धर्मविशेष संबंध और उसके अभाव में. जहां जैसा श्रवण होगा उसकी अपेक्षा भी स्यादस्ति आदि | | भंग हैं। जिसतरह-अनेक धर्मात्मक वस्तुमें किसी एक धर्मके संबंध रहनेपर और उसके प्रतिपक्षी किसी धर्मको विवक्षा न रहनेपर आत्मा है इसप्रकार धर्मविशेषसंबंधकी अपेक्षा 'स्यादस्येवात्मा' यह | प्रथम भंग है एवं जहां धर्मविशेषके संबंध के अभावकी विवक्षा है वहांपर अपने विरोधी अनित्यत्व आदि । धमाके साथ रहनेवाले नित्यत्व निरवयवत्व चेतनत्वरूपसे आत्मा नहीं है इसप्रकार धर्मविशेषके संबंध के | | अभावकी अपेक्षा स्यानास्त्येवात्मा दूसरा यह भंग है । जिससमय धर्मविशेष संबंध और उसके अभावकी विवक्षा एक साथ की जायगी उससमय स्यादवक्तव्य यह तीसरा भंग सिद्ध होगा और जिस समय इन |दोनों धर्मोंकी क्रमसे विवक्षा होगी उससमय 'स्यादस्तिनास्ति चात्मा' यह चौथा भंग सिद्ध होगा। इस प्रकार धर्मसामान्य और उसका अभाव इत्यादि दोनों धर्मोंकी अपेक्षा स्यादस्त्येवात्मा इत्यादि चार | भंगोंका निरूपण कर दिया गया । अब पांचवें भंगका प्रतिपादन किया जाता है पंचम भंगका नाम स्यादास्तचावक्तव्य है। यहांपर तीन स्वरूपोंसे दो अंशोंका निर्माण है अर्थात् १५१ desiCASHRECRABARRRRRRORISA १९९७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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