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________________ अध्याय नहीं हो सकता। अथवा अस्तित्वसे जीवको भिन्न मानने पर विपरीत पदार्थ सिद्ध होगा अर्थात्-'अयं अस्तिशब्दवाच्यार्थभिन्नः, जीवत्वात् मनुष्यवत्' यह अस्ति शब्दका वाच्य जो अर्थ है उससे मिन्न है क्योंकि यह जीव है जिसतरह मनुष्य, सारार्थ-मनुष्य जीव पर्याय है इसलिये उसमें जीवत्व तो है परंतु जीवत्वसे अस्ति शब्दवाच्य अर्थ भिन्न है इसलिये मनुष्य भी आतिशब्दवाच्य अर्थसे भिन्न है। यह विपरीत बात सिद्ध होगी तथा जब जीव पदार्थ ही संसारमें प्रसिद्ध न होगा तो उसके आधीन जो मोक्ष स्वर्ग आदिक व्यवहारकी व्यवस्था मानी है उसका भी लोप हो जायगा। और भी यह बात है कि जिसप्रकार आस्तित्व धर्म जीव पदार्थसे भिन्न है उसीप्रकार वह अन्य पदार्थों से भी भिन्न माना जायगा इसरीतिसे उसका कोई भी आश्रय निश्चित न होने पर उसका अभाव ही होगा क्योंकि जितने भर धर्म वा गुण हैं विना धर्मी वा गुणीके नहीं रह सकते अस्तित्व भी धर्म है इसलिये वह भी धर्मी वा गुणीका आश्रय किये विना नहीं रह सकता इसप्रकार जब आस्तित्वका अभाव ही हो जायगा तो उसके आधीन जितना भी लोकमें व्यवहार है सबका लोप हो जायगा तथा और भी यह बात है कि जब जीवका स्वभाव अस्तित्वसे भिन्न माना जायगा तव यह बतलाना चाहिये कि आत्माका हूँ खभाव क्या है ? यदि उत्तर में उसका कोई भी स्वभाव कहा जायगा तो उन सबमें कोई भी उसका १ स्वभाव निश्चित न हो सकेगा क्योंकि जव जीवपदार्थका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं तव उसका और भी कोई पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता इसलिये अस्तित्वके विना जिसप्रकार आकाशके फूलका अभाव है उसीप्रकार सत्वरूपके अभावमें भी अभाव कहना होगा इसरीतिसे यह बात सिद्ध हो चुकी कि अस्ति टू शब्दके वाच्य अर्थसे जीव शब्दके वाच्य अर्थका न तो सर्वथा अभेद है और न सर्वथा भेद है किंतु ASTROTECRETREECHECEOFREEDOS animaAAAAAAAE RRCRORE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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