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त०रा०
अध्याय
भाषा
११७७
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साथ तादात्म्यसंबंध है उसीप्रकार जीवका भी उसके साथ तादाम्यसंबंध होगा इस रीतिसे जितने भी | संसारके भीतर पदार्थ हैं सामान्यरूपसे सबको जीव कहना होगा इसलिए फिर समस्त संसार जीवरूप ही कहा जायगा । तथा यदि जीवको सत्स्वरूप ही माना जायगा तो जीवस्वरूप जो चैतन्य है उसके भेद ज्ञान आदि क्रोध आदि नरकत्व आदि जितने भर भी विशेषण हैं उनका विभिन्नरूपसे ज्ञान होगा| नहीं इसलिए उनका अभाव ही कहना होगा तथा आत्मामें जो आस्तित्व धर्म है उसे जीवत्व धर्मके समान | जीवका ही स्वभाव माना जायगा तो जिसप्रकार पुद्गल धर्म अधर्म आदि द्रव्योंमें जीवत्वधर्मकी नास्ति है उसीप्रकार उनमें अस्तित्वकी भी नास्ति होगी इस रीतिसे पुद्गल आदिकी सत्स्वरूपसे प्रतीति न होगी क्योंकि तत् रूपसे प्रतीतिमें कारण अस्तित्वकी विद्यमानता है सो अस्तित्व जीवका स्वभाव माननेपर पुद्गल आदिमें रह नहीं सकता। यदि कदाचित् यहाँपर यह कहा जाय कि...... जीव और अस्तित्वका अभेदसंबंध मानने पर उपर्युक्त दोष आते हैं सो नहीं आ इसलिये आस्ति शब्दका वाच्य जो अर्थ है उससे जीव शब्दके वाच्य अर्थको भिन्न मानेंगे..? सो भी ठीक नहीं । यदि जीवसे अस्तित्वको भिन्न माना जायगा तो जीवको असत कहना पडेगा क्योंकि अस्तित्वको विद्यमानतामें ही पदार्थकी सत् रूपसे प्रतीति होती है यहांपर जीवसे अस्तित्वको भिन्न माना है इसलिये उसकी सतरूपसे प्रतीति नहीं हो सकती इस रीतिसे-"नास्ति जीवोऽस्तिशब्दवाच्यार्थविविक्तत्वात' खरविषा| णवत्" अर्थात् जीव कोई पदार्थ नहीं क्योंकि आस्ते शब्दका वाच्य जो अर्थ है उससे वह भिन्न है जिस तरह गधेका सींग, अर्थात्-ज़िसप्रकार आस्ति शब्दके वाच्य अर्थसे भिन्न होनेके कारण संसारमें गधेका सींग कोई पदार्थ नहीं माना जाता उसीप्रकार जीव भी अस्तित्वसे रहित है इसलिये वह भी कोई पदार्थ
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