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________________ सा ११७ SCORPIOUS उसीप्रकार तीनों कालोंमें हमेशा रहनेवाला पदार्थ; मनुष्य नहीं कहा जा सकता । तथा-त्रिकालवर्ती पदार्थको मनुष्य माना जायगा तो जिसतरह 'इस देश और इस कालके संबंधकी अपेक्षा मनुष्य पदार्थ प्रत्यक्षरूपसे दीख पडता है उसतरह अन्य देश और भूत भाविष्यत्कालकी अपेक्षा भी मनुष्य पदार्थ दीख पडना चाहिये परंतु ऐसा दीख नहीं पडता इसलिए जिसप्रकार इस देश और वर्तमानकालकी अपेक्षा मनुष्यका आस्तत्व है उसप्रकार अन्य देश एवं भूत और भविष्यत्कालकी अपेक्षा मनुष्यका अस्तित्व नहीं। तथा-जिसतरह यौवन पर्यायकी अपेक्षा मनुष्यका अस्तित्व है उसतरह यदि वृद्धत्व पर्याय वा अन्य द्रव्यमें रहनेवाले रूप रस आदिकी अपेक्षा भी मनुष्यका अस्तित्व माना जायगा तो जिसप्रकार सर्वथा भविष्यत्कालमें होनेके कारण उपर्युक्त भवन पदार्थ मनुष्य नहीं कहा जा सकता उसप्रकार वह भी मनुष्य नहीं हो सकेगा इसरीतिसे स्वसचाकी अपेक्षा जीव स्यादस्ति और परसचाकी अपेक्षा स्थानास्ति । ही कहना पडेगा इसतरह स्यादस्ति और स्थानास्ति ये दो भंग स्वयंसिद्ध हैं। तथा यह भी बात है कि यदि जीव अपनेमें परसचाके अभावकी अपेक्षा न करेगा तो वह जीव ही न हो सकेगा अथवा | सन्मात्र ही सिद्ध होगा और वह जिसप्रकार विशेषरूपसे अनिश्चित होने के कारण सामान्य पदार्थ जीव नहीं होता उसीप्रकार वह सन्मात्र पदार्थ भी जीव नहीं हो सकता तथा जन जीवत्वकी सिद्धिमें खसत्ताका होना और परसचाके अभावकी अपेक्षा मानी गई है तब यदि उसमें स्वसचाका परिणाम न माना जायगा तो जीव पदार्थ ही सिद्ध न होगा अथवा जीवका जीवत्व भी सिद्ध न हो सकेगा क्योंकि स्वसचारूप परिणत न होनेपर केवल परका अभावस्वरूप होनेसे आकाशके फूलके समान उसकी नास्ति ही माननी पडेगी इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि जिसप्रकार आस्तित्वकी स्वात्मा आस्तित्वस्वरूपसे है और निकटवरकरावREAकसलवालल ABASANATABA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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