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________________ BRE XBREAKISRORE है नहीं माना किंतु घट पट रथ आदिमें रहनेवाले विशेष स्वरूप अनित्यत्वसे व्याप्त न मानकर अनित्यत्व . अध्याय र सामान्यसे कृतकत्व व्याप्त माना है उसीतरह 'अस्त्येव जीवः' यहांपर जीवके साथ अस्तित्व सामान्यकी 9 व्याप्ति हे घट पट आदिमें रहनेवाले विशेष स्वरूप अस्तित्वकी नहीं इसरीतिसे जब अस्तित्व सामा६ न्यसे ही जीवकी व्याति है, पुद्गलादिगत अस्तित्वविशेषसे नहीं तब पुद्गलका अस्तित्व जीवका अस्तित्व ६ नहीं माना जासकता इसलिये ऊपर जो दोष दिया गया है वह ठीक नहीं ? इसका समाधान यह है कि जब अस्तित्वैकांतवादीने सामान्य अनित्यरूपसे ही अनित्यत्व माना, विशेष अनित्यरूपसे नहीं तब 'अनित्यमेव कृतकं' यहाँपर जो एव शब्दका प्रयोग अवधारणार्थक किया गया है वह निरर्थक है क्यों हूँ कि विशेष अनित्यत्व रूपसे अनित्यत्वकी निवृचिकेलिये एवकारका प्रयोग है सो विशेष अनित्यत्व रूपसे है अनित्यत्वको आस्तित्वैकांतवादी स्वीकार ही नहीं करता फिर उसका प्रयोग व्यर्थ ही है यदि यहॉपर है अस्तित्वैकांतवादी यह कहे कि___ हम सर्वथा विशेषरूपसे आनत्यत्वका नषेध नहीं करते कितु स्वगत अर्थात् अपने स्वरूपकी अपेक्षा अनित्य है ही ऐसा मानते हैं ? सो भी ठीक नहीं। यदि स्वगतरूपसे जो कृतक है वह अनिस माना जायगा तो परगतरूपसे अर्थात परपदार्थकी अपेक्षा 'आनित्य नहीं है। यह भी मानना पडेगा फिर 'अनित्यमेव' यहांपर अवधारणार्थक एव शब्दका प्रयोग निरर्थक ही है अर्थात विशेषरूपसे अनि, त्यत्वके निषेधके लिये एवकारका प्रयोग था सो परपदार्थकी अपेक्षा आनित्यत्वका निषेध स्वीकार करने । पर वह सिद्ध ही हो गया फिर एवकारका प्रयोग व्यर्थ ही है । तथा जब अवधारणार्थक एव शब्दका । प्रयोग नहीं किया जायगा तक 'आनित्यं कृतकं ऐसे ही वाक्यका प्रयोग होगा। यहांपर आनित्यत्वका RECTROCIATERACTERISTORECResortants ORAT
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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