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'. एकगुणमुखेनाशेषवस्तुरूपसंमहात्सकलादेशः ॥ १८॥ 5 वस्तुके किसी एक गुणद्वारा उस वस्तुके समस्त स्वरूपका ग्रहण कर लेना सकलादेश कहा जाता
है। इसका खुलासा अर्थ यह हैर बिना किसी गुणस्वरूपके उल्लेख किए गुणी पदार्थका ज्ञान नहीं होता, यह नियम है इसलिए जहां र पर जिससमय कोई आभिन्न वस्तु किसी एक गुणरूपसे कही जाती है वहांपर सकलादेश होता है जिम व तरह एक जीव पदार्थ अस्तित्व आदि अनंते गुणोंका पिंड है । वह जहाँपर अस्तित्व आदि गुणों से र किसी एक गुणके द्वारा अभेदसंबंध वा अभेद उपचासे निरंश समस्त कहा जाता है और जीव और 13 गुणों में विभाग करनेवाले अन्य किसी गुणकी विवक्षा नहीं रहती वहांपर वह जीव सकलादेश-प्रमाणका
विषय होता है यदि यहांपर यह कहा जाय कि अभेद संबंध और अभेद उपचारको व्यवस्था किसप्रकार पर है ? उसका समाधान यह है किMa जहाँपर द्रव्यार्थिक नयका आश्रय लिया जाता है वहांपर अभेदवृचि है क्योंकि आस्तित आदि
गुण जीव आदि द्रव्य से भिन्न नहीं तथा जहांपर पर्यायाथिक नयकी विवक्षा की जाती है वहाँपर यद्यपि है पर्यायार्थिक नयसे गुण गुणीका आपसमें भेद है परन्तु उन दोनोंको 'एक' ऐसा उपचारसे माना जाता है इसलिये वहांपर अभेदोपचार है।
तत्रादेशवशात्सप्तभंगी प्रतिपदं ॥१९॥ ऊपर जो सकलादेश प्रमाण कहा गया है उमके रहनेपर आदेश अर्थात् जैसा जैसा प्रश्न होता है. १ एकधर्मबोधनमुखेन तदासकानेकाशेपधर्मात्मावास्तुविषयकवाधजनकवाक्यत सकलादेशत्वं (सप्तभंगीतरंगिणी पृष्ठ १९)
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