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________________ GAURBASHREECLEGEleKEDARLABORATOR किन्हीं किन्हीं मनुष्योंका कहना है कि 'स्यादस्त्येव जीवः' इत्यादि जो सात भंग हैं उनमें प्रत्येक ||६|| अध्याय | भंग विकलादेश है और जिससमय सातो भंग समुदित हो जाते हैं उससमय वे सकलादेश कहे जाते हैं | है परंतु यह भी ठीक नहीं। क्योंकि वहांपर यह शंका होती है कि स्यादस्त्येव जीवः' इत्यादि हरएक वाक्य | विकलादेश क्यों है ? यदि यहाँपर यह उत्तर दिया जाय कि वह हरएक वाक्य समस्त अर्थका प्रतिपादन | नहीं करता कित मिले हए सातो ही वाक्य समस्त अर्थका प्रतिपादन करते हैं इसलिए प्रत्येक वाक्यका विकलादेश कहा जाता है ? मो ठीक नहीं। स्यादस्त्येव जीवः' इत्यादि सातो वाक्य भी यदि मिल जाय तो भी समस्त अर्थका प्रतिपादन नहीं हो सकता क्योंकि 'स्वादस्त्येव जीवः' इत्यादि सातो वाक्य अस्तित्व & विशिष्ट जीवका ही प्रतिपादन कर सकते हैं समस्त धर्मविशिष्ट समस्त पदार्थों का नहीं किंतु समस्त भुत|| ज्ञानमें ही समस्त अर्थ प्रतिपादन करनेकी सामर्थ्य है इसलिए सातो वाक्योंमें प्रत्येक वाक्य विकलादेश है और मिलकर सातो वाक्य सकलादेश है यह भी सकलादेश विकलादेशका अर्थ अयुक्त है । तथा इसीप्रकार बहुतसे लोग जो यह कहते हैं कि सकल अर्थका प्रतिपादन करनेके कारण मिलेहुए सातो वाक्य सकलादेश हैं, वह भी ठीक नहीं। क्योंकि मिलेहए सातो वाक्य समस्त अर्थके प्रतिपादक नहीं हो सकते । जिससमय अस्तित्व धर्मकी सप्तभंगी चलाई जायगी उससमय उससे अस्तित्वविशिष्ट पदार्थका ही प्रतिपादन होगा एकत्व अनेकत्व नित्यत्व अनित्यत्व आदि अर्थों का प्रतिपादन नहीं हो | सकता इसलिए समस्त अर्थके प्रतिपादक होनेके कारण सातो वाक्य सकलादेश है यह भी सकलादेशका ॥ अर्थ ठीक नहीं। इसरीतिसे ऊपर जो सकलादेश विकलादेशके अर्थ कहे गये हैं वे सब ठीक नहीं । अब ||8|| वार्तिककार सकलादेशका स्पष्टीकरण करते हैं १ सप्तभंगीतरंगिणी। KERI-NCREASIRAMPIECCASIONARIES
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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