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________________ मण्याच HeadSGARDENDRA-ALIGEDROty कभी भी विनाश नहीं होता ऐसे स्वात्मस्वरूप अस्तित्व आत्मत्व ज्ञातृत दृष्ट्टत्व कर्तृत्व भोक्तृत्व अमूर्तत्व असंख्यातप्रदेशत्व अवगाहनत्व आतसूक्ष्मत्व अगुरुलघुत्व अहेतुकत्व अनादिसंबंधित्व ऊध्र्वगतिस्वभाव आदिक अन्वयी गुण हैं। तथा जो ज्ञान वचन और भेदरूप अनुमानसे जाने जाते हैं जो परस्पर भिन्न है एवं उत्पचि स्थिति विपरिणाम वृद्धि हास और विनाशरूप धर्मस्वरूप हैं ऐसे गति इंद्रिय काय योग तु वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या और सम्यक्त्व आदि व्यतिरेकी गुण हैं। तस्य शब्देनाभिधानं क्रमयोगपद्याभ्यां ॥१४॥ ___ उस अनेक स्वरूप एक जीवकी प्रतीति करानेवाला शब्दप्रयोग दो प्रकारका है एक कम दूसरा म योगपद्य अर्थात् उस आत्माकी प्रतीति या तो समुदायस्वरूप वाच्यको कहनेवाले शब्द प्रयोगसे होती ॐ है या क्रम कूमसे एक एक धर्मके प्रतिपादन करनेरूप शब्द प्रयोगसे होती है। किंतु उस अनेक स्वरूप र जीवको प्रतिपादन करनेवाला तीसरा शब्द नहीं है। तेच कालादिभिर्भेदाभेदार्पणात् ॥१५॥ वे दोनों क्रम और योगपद्य काल आत्मरूप आदिके साथ भेद और अभेद विवक्षासे होते हैं। है खुलासा तात्पर्य यह है कि-आगे कहे जानेगले काल आत्मरूप आदिसे जिस समय वस्तुके आस्तत्व है आदि धाँकी भेद विवक्षा है वहांपर किसी एक शब्दमें अनेक अर्थोके प्रतिपादन करनेकी शक्ति न होने के कारण क्रम माना है अर्थात् भेदविवक्षा रहनेपर वहांपर वस्तु के अनेक धर्मों का ज्ञान क्रमसे ही ___* जो गुण सदा नित्यरूपसे आत्माके साथ रहते हैं उन्हें अन्वयी गुण कहते हैं। तथा जो कालांतरमें नष्ट हो जाते हैं ऐसे है जो पर्याय धमे हैं उन्हें व्यतिरेकी धर्म कहते हैं। इन धाकी विवक्षासे आत्मामें अनेकपना आता है। SSPOPSISEASSISTREPORTEREST ५५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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