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________________ D ESCRI%AGE FORORSANERISTIANEI - वह व्यंग्य है। तथा जो पदार्थ कर्म ई वह उसी समय कर्ता भी बन जाता है क्योंकि कर्ताके होते ही | क्रियाकी प्रवृत्ति है जिस तरह 'तंडुलोंका पाक करता है। यहांपर तंडुल कर्म है परंतु वे ही उस समय | 'पकते रहते हैं' ऐमी प्रतीतिके बलसे का भी कहे जाते हैं इसतिसे एक ही तंडुलरूप अर्थ कर्म कर्ता हू आदि अनेक शब्दोंका वाच्य है। दूसरा खुलासा दृष्टांत इसप्रकार है-जिस प्रकार एक ही घट पृथिवीहै) का विकार होनेसे पार्थिव, मिट्टीका विकार होनेसे मार्तिक, ज्ञानका विषय होनेसे संज्ञेय, नूतन होनेसे टू नव और बडा होनेसे महान् कहा जाता है। तथा पार्थिव आदि स्वरूपोंसे ही विज्ञानोंका भी विषय होता है। यदि पार्थिव आदि घटके स्वरूप न माने जायगे तो घट पदार्थ ही सिद्ध न हो सकेगा उसका 1 अभाव ही हो जायगा क्योंकि जिसका कोई स्वरूप नहीं वह पदार्थ असत् है उसीप्रकार आत्मा भी अनेक वचन और विज्ञानोंका आश्रय है इसलिये एक आत्माका अनेक स्वरूप कहना उचित है, बाधित नहीं । तथा अनेकशक्तिप्रचितत्वात् ॥.॥ जिस प्रकार घो पदार्थोंको चिकनाता है खानेवालोंको तृप्त करता है और पुष्ट करता है इत्यादि है अनेक शक्तियोंका धारक है तथा जिसप्रकार घट जल धारण करना जल लेजाना आदि अनेक शक्तिविशिष्ट है उसीप्रकार आत्मा भी द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप कारणों के द्वारा अनेक प्रकारकी भिन्न भिन्न शक्तियोंकी प्राप्ति करता है इसलिये अनेक शक्तिस्वरूप होनेसे वह अनेक सरूप है और भी यह बात है किवस्त्वंतरसंबंधाविर्भूतानेकसंबंधिरूपत्वात् ॥८॥ १९५६ N ISTRITISTORRORISR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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