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अध्याय
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ब्रह्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युन स्वर्गपर्यंतके देवोंको उत्कृष्ट स्थिति प्रतिपादन करनेके लिए | सूत्रकार सूत्र कहते हैं
त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिराधिकानि तु ॥३१॥ सात सागरसे तीन, सात, नव, ग्यारह, तेरह और पंद्रह सागर आधिक वाकीके छह स्वर्गोंके युगलोंमें रहनेवाले देवोंकी उत्कृष्ट आयु है । अर्थात् ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्गनिवासी देवोंकी उत्कृष्ट आयु दश की सागरसे कुछ आधिक है। लांतव कापिष्ठ स्वर्गनिवासी देवोंकी कुछ आधिक चौदह सागर प्रमाण उत्कृष्ट हूँ| आयु है इसीप्रकार आगे भी समझ लेनी चाहिये।
सप्तग्रहणस्य श्यादिभिरभिसम्बंधः॥१॥ दो दो युगलोंमें सात सात सागरकी आयु है यह यहांपर प्रकरण आरहा है उस सप्तके साथ यहां त्रि आदिका सम्बंध कर लेना चाहिये अर्थात् तीन आधिक सात, तेरह आधिक सात, पंद्रह आधिक सात, | यह सूत्रका अर्थ है।
तुशब्दो विशेषणार्थः॥२॥ तुशब्द यहाँपर विशेषणार्थक है और वह 'अनुवृत्तिके द्वारा आया हुआ आधिक शब्द ब्रह्म ब्रह्मोचर लांतव कापिष्ठ, शुक महाशुक्र, शतार और सईसार इन चार स्वर्गोंके युगलों के साथ ही सम्बद्ध होता है आगेके स्वगोंके युगलोंके साथ नहीं यह विशिष्ट अर्थ द्योतन करता है इससे यहांपर यह अर्थ समझ लेना चाहिये कि-ब्रह्मलोक ब्रह्मोचर युगलमें कुछ अधिक देश सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है। लांतव कापिष्ठ | युगलमें कुछ अधिक चौदह सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। शुक महाशुक युगलमें कुछ अधिक सोलह
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