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________________ भाषा त०रा० मना AGRABHABISE प्रकटताका काल जब एक ही है तब सम्यग्ज्ञानके साथ सम्यग्दर्शनकी प्रकटता होनेके कारण अधिगमज सम्यग्दर्शन सिद्ध हो सकता है निसर्गज नहीं । इसलिये निसर्गज सम्यग्दर्शन कोई भी चीज नहीं इन सब शंकाओंका समाधान वार्तिककार करते हैं- .. उभयत्र तुल्येऽतरंगहेतौ बाह्योपदेशापेक्षानपेक्षभेदाद् भेदः॥५॥ दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम क्षय और क्षयोपशम तो सम्यग्दर्शनकी उत्पचिमें अंतरंग कारण ४ा है और उपदेश आदि बाह्य कारण हैं। चाहे निसर्गज होचा अधिगमज सम्यग्दर्शन हो अंतरंग कारण ४ दोनोंमें ही बराबर हैं। इस रीतिसे दर्शनमोहके उपशम आदि अंतरंग कारणोंके होनेपर जहां बाह्य | । उपदेशके विना ही जीवादि पदार्थों का श्रद्धान हो जाय वह तो निसर्गज सम्यग्दर्शन है और उपदेश आदि परकी सहायतासे जहां जीवादि पदार्थों का श्रद्धान होवे वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है। और भी है। यह वात है कि- . अपरोपदेशपूर्वके निसर्गाभिप्रायो लोकवत् ॥६॥ MI लोकमें यह वात प्रत्यक्ष दीख पडती है कि जो सिंह होता है उसकी स्वभावसे ही क्रूर प्रकृति होती है । Bा तथा अष्टापदकी शूर और भेडियाकी कायर होती है एवं सर्प आदि स्वभावसे ही पवनाहारी कहे जाते | हैं। सिंह आदि जीवोंकी क्रूर आदि प्रकृतियां आकस्मिक-विना कारणके नहीं होती क्योंकि उनके होनेमें कर्म कारण है यथायोग्य अपने कर्मानुसार सिंह आदि योनियोंमें जन्म लेनेसे वैसे स्वभावोंको धारण करना पडता है इसलिये जिस तरह सिंह आदिकी क्रूर आदि प्रकृतियां परके उपदेशके विना ही होनेके कारण निसर्गज-स्वाभाविक हैं उसीप्रकार उपदेश आदि बाह्य कारणोंकी सहायताके विना AREERSNECTIRSANSAREABREACHERBALAGTAK १३
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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