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________________ ब D स०रा० ERABHABHEDGETS स्वभावसे उनका विश्वास करमा आस्तिक्य कहा जाता है जहां पर ये गुण प्रगटरूपसे जान पडें उसे सरागसम्यक्त्व समझना चाहिये। • आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् ॥३१॥ अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन सातों कर्म प्रकृतियोंके सर्वथा नाश हो जाने पर आत्माकी विशुद्धिका होना वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है। सराग और वीतराग दोनों सम्यक्त्वोंमें सराग सम्यक्त्वके हो जानेपर वीतराग सम्यक्त्व होता है इसलिये सराग सम्यक्त्व कारण और वीतराग सम्यक्त्व कार्य है तथा वीतराग सम्यक्त्य स्वयं कारण भी है और कार्य भी है। sil जीव अजीव आदि पदार्थोंको विषय करनेवाला सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है ? उसका उचर | | यह है तन्निसर्गादधिगमाहा॥३॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनकी उत्पचि स्वभावसे भी होती है और गुरुके उपदेश आदि कारणोंसे होनेवाले | | ज्ञानसे भी होती है। नि' उपसर्गपूर्वक सृज् धातुसे भावसाधन अर्थमें घञ् प्रत्यय करने पर निसर्ग शब्द सिद्ध होता है। निसर्गका अर्थ स्वभाव है और 'निसर्जनं निसर्गः' यह उसकी व्युत्पचि है। अधिपूर्वक गम्' धातुसे भावसाधन अर्थमें 'अच् प्रत्यय करनेपर अधिगम शब्द सिद्ध होता है अधिगम शब्दका अर्थ ज्ञान और 'अधिगमनं SASASABASISARSAWARE १ Au -
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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