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________________ तरा० भाषा ||| जाय इस बातको सूचित करनेकेलिए 'वैमानिकाः' इस अधिकारस्वरूप सूत्रका उल्लेख है। अर्थात् || मध्यान |ज्योतिष्क देवोंके ऊपर रहनेवाले समस्त देव वैमानिक निकायके देव हैं। ६ . अपने भीतर रहनेवाले देवोंको जो विशेषरूपते पुण्यवान मनवावें अर्थात् जिनमें रहनेवाले देव है वि-विशेष; मान-सम्मानाई समझे जांय वे विमान कहे जाते हैं औरउन विमानों में रहनेवाले देव वैमानिक हैं। इंद्रक विमान, श्रेणिवद्ध विमान और पुष्पप्रकीर्णक विमानोंके भेदसे वे विमान तीन प्रकारके हैं । उनमें इंद्रक विमान तो इंद्रके समान मध्यमें विद्यमान हैं। णिबद्ध विमान उन इंद्रक विमानों की चारो || दिशाओंमें आकाशके प्रदेशोंकी श्रेणिके समान स्थित हैं और पुष्प प्रकीर्णक विमान जुदे जुदे रूपसे || 18/ फैले हुए पुष्पोंके समान विदिशाओंमें स्थित हैं ॥१६॥ वैमानिक देवों के भेदोंको जनानेकेलिए सूत्रकार सूत्र कहते हैं-... - कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १७॥ वैमानिक देव कल्पोपन्न और कल्पातीतके भेदसे दो प्रकारके हैं। सौधर्म आदि सोलह स्वगोंके है विमानोंमें इंद्र आदि दश प्रकारके देवोंकी कल्पना होती है इस कारण उन विमानोंकी कल्प संज्ञा है। उन कल्पोंमें जो उत्पन्न हों वे कल्पोपपन्न कहे जाते हैं । जिन विमानोंमें इंद्र आदि दश भेदोंकी कल्पना | नहीं है ऐसे ग्रैवेयक आदिकोंको कल्पातीत कहते हैं। शंका गैवेयकादिषु नवादिकल्पनासंभवात्कल्पत्वप्रसंग इति चेन्न उक्तत्वात् ॥१॥ नौ ग्रैवेयक विमान हैं । नौ अनुदिश विमान हैं। पांच अनुचर विमान हैं इसप्रकार वेयक आदि ||१०४१ विमानोंमें भी नव आदिकी कल्पना विद्यमान है इसलिए ग्रैवेयक आदिकोंको भी कल्प कहना न्यायप्राप्त MEERUABLEGENREGEOGRAPESALABCDA UPSEENABEEGCRORESCUPERSONA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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