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अध्याय
चतुर्वर्णाः, चतुर्वणे भवाश्चातुर्वर्याः यहाँपर चतुर्वर्ण शब्दसे स्वार्थ यण् पत्याका विधान है उसीप्रकार
आभिमुख्येन योगः, अभियोगः, अभियोगे भवा 'आभियोग्या' यॉपर भी अभियोग शब्दसे स्वार्थमें यण् प्रत्ययकर आभियोग्य शब्दकी सिद्धि मानी है। अर्थात् जो देव घोडा हाथी बनकर दास हो सदा इंद्रकी सेवा करते हैं वे आभियोग्य देव कहे जाते हैं । अथवा___ अभियोगे साधवः, आभियोग्याः, वा अभियोगमईतीति आभियोग्याः अर्थात् जिन देवोंका स्वभाव सवारी आदि द्वारा दासवृत्ति करनेका हो वा दासवृचिरूप जो वाहन आदिका कार्य करनेमें समर्थ हों वे आभियोग्य देव हैं इसप्रकार साधु अर्थ वा योग्य अर्थमें यण् प्रत्यय करनेसे भी आभियोग्य शब्दकी सिद्धि है।
अंत्यवासिस्थानीयाः किल्विषिकाः॥१०॥ किल्विषका अर्थ पाप है जिनके विशिष्ट पापका उदय हो वे किल्लिषिक कहे जाते हैं। ये किलिपिक जातिके देव नगरके अंतमें इस लोकके चांडालों के समान निवास करते हैं।
एकश इति वीप्सार्थे शस् ॥११॥ 'एकैकस्य निकायस्य इति एकश' इसप्रकार वीप्सा अर्थमें यहां एक शब्दसे शस् प्रत्यय मानकर 'एकश' शब्दकी सिद्धि हुई है । अर्थात् एक एक निकायके इंद्र आदि भेद हैं। .
विशेष-यहाँपर यह शंका न करनी चाहिये कि इंद्र आदि उत्चम और निकृष्टरूपसे देवोंका ऐसा भेद किस तरह हो जाता है ? क्योंकि देवगति नाम सामान्य पुण्य कर्मके उदयसे जिसप्रकार जीव देव होजाते हैं । भवनवासी आदि विशिष्ट देव नामकर्मके उदयसे भवनवासी आदि हो जाते हैं उसीप्रकार
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