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________________ त०रा० भाषा १००१ इंद्र को अपने नाशक कुछ भी शंका नहीं रहती और न किसी शत्रुका उसे भय ही रहता है फिर इन आत्मरक्ष देवोंकी उसे आवश्यकता नहीं हो सकती, उनकी कल्पना करना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं । ऋद्धिविशेष-ऐश्वर्यका ठाटबाट दिखलाने केलिए और आत्मरक्ष देवोंकी इंद्रपर घनिष्ठ प्रीति है यह प्रगट करने के लिए अथवा इन सब परिकरों को देखकर इंद्र को विशेष आनंद आता है इसलिए उनकी आव श्यकता है इसलिए उनकी कल्पना निरर्थक नहीं । आरक्ष कार्थचरसमाः लोकपालाः ॥ ६ ॥ लोकको पालन करनेवाले लोकपाल कहे जाते हैं । ये लोकपाल देव घनके उत्पादक कोतवाल के समान नागररक्षक हैं। " दंडस्थानीयान्यनीकानि ॥ ७ ॥ पियादा अश्व वृषभ रथ इस्ती गंधर्व और नर्तकी ये सात प्रकारकी इंद्र की सेना के देव दंडस्थानीय अनीक कहे जाते हैं । प्रकीर्णकाः पौरजानपदकल्पाः ॥ ८ ॥ जिसप्रकार राजाओं को पुर और नगरनिवासी जन प्रीतिके कारण होते हैं उसीप्रकार जो देव इंद्रकी प्रीतिके कारण हैं वे प्रकीर्णक देव हैं । आभियोग्याः दाससमानाः ॥ ९ ॥ जिसप्रकार यहाँपर दास-भृत्य वाहन आदि कार्य करते दीख पडते हैं उसीप्रकार जो देव वाहन सवारी आदि बातों से इंद्रका उपकार करते हैं वे आभियोग्य देव हैं । जिसप्रकार 'चत्वारश्र ते वर्णः मम्मीचे १००१
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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