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________________ ७७ उत्तर --- उसकी सूचना रूमन भाषामें तो बड़ा और पिताका नाम पोप हैं परंतु अब छलकपटसे दूसरेको ठग कर अपना प्रयोजन साधनेवालेको पोप कहते हैं. इत्यादि ( सत्यां० पृ० २७८ ). 45 [६] " शैव धर्मका सन्मान ! पश्चात् इन वाममार्ग और शैवोंने सम्मति करके भग लगका स्थापन किया जिसको जलाधारी ( जलहरी ) और लिंग कहते हैं और उसकी पूजा करने लगे उन निर्लज्जोंको तनिक भी लज्जा न आई ! कि यह पामरपनका काम हम क्यों करते हैं ? ( सत्या • पृ २९७ ) [७] " तुलसी रुद्राक्ष और चंदन आदिकी माला पहरने वालोंका सन्मान ! " जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चंदन आदिको कंठमें धारण करना है वह सब जंगली पशुवत् मनुध्यका काम है ! ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी विरोधी और कर्तव्य कर्मके त्यागी होते हैं । [ सत्या० प्र० ३०० ] [८] " वैष्णव धर्मका सन्मान ! " प्रश्न - वाममार्गी और शैव तो अच्छे नहीं परंतु वैष्णव तो अच्छे हैं ? उत्तर - यह भी वेद विरोधी होनेसे उनसे भी अधिक बुरे हैं । [ सत्या० प्र० पृ० ३०१ ] चक्रांकित कोग अपनेको बड़े वैष्णव मानते हैं परंतु अपनी परंपरा और कुकर्मकी ओर ध्यान नहीं देते कि प्रथम इनका मूल पुरुष " शठकोप " हुआ कि जो चक्रांकितों ही के ग्रंथों
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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