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विश्वभर में जितने भी मत मतान्तर है उनमें सत्य कौन है और मिथ्या कौन है इसका निर्णय करना कोई गुड़ियों का खेल नहीं है। इसके लिए जितने विशाल पांडित्य और परामर्शकी आवश्यकता है उससे अधिक असंकीर्ण विशद और निष्पक्ष विचारप्रिय हृदयकी जरूरत है. इस लिए किसी भी धर्म या सम्प्रदायकी आलोचना करनेमें प्रवृत होनेवाले मनुष्यको अपने चारों तर्फ निरीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए। परंतु वर्तमान समयका प्रवाह इससे कुछ विपरीत ही दृष्टिगोचर हो रहा है । आज एक साधारणसे साधारण बुद्धि रखनेवाला मनुष्य भी बड़े बड़े विद्वानों, महर्षियों तथा आचायोंके विचारों को भद्दे और मूर्खता भरे कहने के लिए साहस करने लग जाता है ! मामूली भाषा मी चाहे लिखनेका शहर न हो परन्तु दर्शनों के मीमांसक तो अवश्य बन जायँगे ! सच पूछो तो ऐसे ही मनुष्य संसार में द्वेषामिके मूल उत्पादक हैं । और ऐसे ही पुरुषोंके कारण भगवती भारत वसुंधरा अनेक यातनाओं को सहन करती है ।
यद्यपि परस्पर एक दूसरे के खंडन मंडनकी शैली अर्वाचीन नहीं किन्तु दर्शनों के प्रादुर्भाव से भी प्रथमकी है दर्शनों के समय में तो वह अधिक उन्नतिको प्राप्त हुई पर उसके रूपमें विकृति नहीं हुई । सभ्यता के सिंहासन परसे उसे नहीं गिराया गया । उस समयकी तीव्र से तीव्र आलोचनामें भी गौरवशून्य शब्दों का विन्यास नहीं पाया जाता । सत्य कहा जाय तो वर्तमान समय में भारतीय पूर्व महर्षियोंकी आलोचना शैलीका जीवित उदाहरण अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों के ही लेख हैं । आजकल के मिथ्या धर्माभिमानी पंडितंमन्यों को उन से बहुत कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए.