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'आमुखम्
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आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्यं निविष्टा ॥ (पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥
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सारमें जितने मत या सम्प्रदाय देखने में आते हैं उनमें कितनीक बातें तो ऐसी हैं, जिनका सबसे अविरोध है और कितनेक नियम ऐसे भी हैं, जो कि एक दूसरेसे विरुद्ध हैं । एवं कितनेक सिद्धान्तों को सर्वसम्मत होनेपर भी उनकी मान्यता प्रत्येक मतमें भिन्न भिन्न प्रकारकी देखी जाती है ।
विचारपूर्वक परामर्श करनेसे यह नियम कुछ स्वाभाविक और आवश्यक भी प्रतीत होता है, कोई महान पुरुष जिस वक्त किसी मत या सम्प्रदाय की स्थापना करता है उस वक्तवह उसके लिए कितनेक असाधारण नियम भी अवश्य बनाता 'है, जिससे अन्यमतों की अपेक्षा उसमें भिन्नता प्रतीत हो । स्वीकृत. नियमों की रक्षा तथा उनका गौरव बढ़ानेके लिए अन्यमतोंके कतिपय सिद्धान्तों (जो कि उसके नियमोंसे प्रतिकूल मालूम
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होते हों ) का वह प्रतिवाद भी करता है । किसी दृष्टिसे यह ' बात उसके लिए उचित भी है, अन्यथा उसका संसार पर कुछ प्रभाव भी नहीं पड़ता; परंतु उसकी भी कोई मर्यादा होनी चाहिए । मर्यादाका उल्लंघन करके जो प्रतिवाद किया जाता है वह निस्सन्देह सभ्यतासे गिरा हुआ और लाभकेबदले प्रत्युत हानिकारक हो जाता है । वृष्टि सस्यवृद्धि में जितनी, उपयोगी है, उससे अधिक हानि अतिवृष्टिसे होती है ।
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