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ने रत्नसार ग्रंथका नाम लेकर अपनी इच्छा के अनुकूल उद्धृत करके जैन धर्म के नेताओंको मूर्ख बनाया है !
सज्जनो ! हमने जैनोंका जो मंतव्य ऊपर दिखाया है, वह भिन्न भिन्न वाक्यों द्वारा रत्नसार ग्रंथ में भी लिखा हुआ है । उसीको कुछ पेचीदासा लिखकर " स्वामी दयानंदजी " कहते हैं कि " अड़तालीस कोसकी स्थल जूं जैनियों के शरी पडती होगी और उन्होंने देखी भी होगी औरका भाग्य कहां जो इतनी बड़ी जूंंको देखें !!! और देखो उनका अंधाधुंध वीछू बगाई कसारी और मक्खी एक योजनके शरीरवाले होते हैं इनका आयुमान अधिक से अधिक छः महनेिका है । देखो भाई ! चार२ कोंसका वीछू अन्य किसीने देखा न होगा जो आठ मील तकका शरीरवाला वीहूं और मक्खी भी जैनियोंके मतमें होती हैं । ऐसे वीछू और मक्खी उन्होके घरमें रहते होंगे और उन्होंने देखे होंगे अन्य कि सीने संसार में नहीं देखे होंगे कभी ऐसे वीलू किसी जैनिको काटते होंगे तो क्या होता होगा ?" इत्यादि [ सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४२१ ] आगे पृष्ठ ४२२ में " क्या यह महा झूठ बात नहीं कि जिसका हो सके ! ||" इत्यादि.
कदापि संभव न
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समालोचक – “स्वामी जी" का - "अडतालीस कोसकी स्थूल जूं जैनियों के शरीर में पड़ती होगी" लिखना सभ्यता और सत्यताकी सीमाको सर्वथा उल्लंघन कर रहा है ! जैनथोंमें अडतालीस कोसकी जूँका उल्लेख कहीं देखने में नहीं आता ! हम पाठकों को ऊपर बत ला चुके हैं कि, तीन इंद्रियवाले जो जीव हैं उन का शरीर न्यूनसे लांके असंख्य भाग जितना और अधिक से अधिक का माना है । अर्थात् तीन इंद्रियवाला जीव छोटेसे छोटा तो
जैन मत में
न्यून अंगुतीन कोस