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३९ शास्त्रमें संख्याकी सीमा बांधी है उसका भी तात्पर्य यही है कि, यहां तक की संख्याको इम कथमपि व्यवहारमें ला सकते हैं । इससे अधिक संख्या नहीं, यह कदापि नहीं कह सकते । कूपका मेंडक यदि समुद्र जलकी अगाधताको न स्वीकार करे तो समुद्र जलकी अगाधता कभी नष्ट होने नहीं लगी। इतना कहकर हम " स्वामीजी " को हृदय से धन्यवाद देते हैं, जो कि समस्त धर्माचार्यों को मूर्ख बतानेवाले आप भारतमें अकेले ही अनूठे विद्वान् पैदा हुए !
जैनमत में समस्त जीवों को संसारी और मुक्त इन दो वर्गीमें विभक्त किया है. संसारी जीव स्थावर और तस भेदसे -दो प्रकार के हैं. इन दोमेंसे पृथिवी, जल, तेज, वायु, और वनस्पति, ये पांच स्थावर कहलाते हैं. इनसे भिन्नकी त्रस संज्ञा : हैं. पृथिव्यादि पांच और तस इन है को ही जैनमत में पटकाय कहा है. पृथिवी जिन जीवोंका शरीर है उसको पृथिवीकाय कहते हैं. ऐसे ही जलादि चारमें भी समझ लेना. यहां पर इतना स्मरण अवश्य रखना चाहिये कि, वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणादने वनस्पति (कंद, मूल, वृक्ष, पुष्प लता, गुल्मादि) को पृथिवी के अंतर्गत मानकर - पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, इन चारोंमेसे वनस्पतिको छोड़ बाकी किसी को भी सजीव नहीं माना ! अन्य दर्शनका का भी बहुधा यही मत है | परंतु जैनदर्शनका सिद्धांत इससे प्रतिकूल है । जैन मतमें तो वनस्पतिको पृथिवी से भिन्न, तथा इन पृथिवी आदि पांचोंको सजीव माना है । अर्थात् जीवोंने परमाणुओं को ग्रहण कर कर्मों के निमित्तसे असंख्य शरीरोंका जो पिंड रचा है वही 'पृथिव्यादि पांच काय कड़े जाते हैं. इनको सजीव सिद्ध करने के लिये जैनग्रंथों में बहुतसे प्रमाणोंका उल्लेख किया हुआ है.