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१४४ हैं इत्यादि वातोंसे मोक्षको प्राप्त होते हैं यह ई हो। ओंका भेद है। [ पृष्ट ४७७ ]
': समालोचक-हाय ! हाय ! कितना अनी में रह अंधेर ! कहां तो जैन मतके खंडनका अभिमान लत्तसे उसके स्थूलसे स्थूल सिद्धान्तोंके समझने में भी इतना अज्ञान साहसकी हद हो गई ! विज्ञानकी समाप्ति हो गई !
पाठक महोदय ! स्वामीजी बड़े ही प्रौढ वैयाकरण ये क्योंकि उन्होंने सिद्धान्त कौमुदी आदि ग्रंथोंको यमुना नदीमें 'फेंककर एक नेत्र हीन वैयाकरणसे अष्टाध्यायी और महा।
भाष्य पढ़ा था । इसलिए वुद्धिमानों को उनके प्रशस्त वैयाकरण' होनेमें अणुमात्र भी संदेह नहीं ! हमको तो स्वामीजी के व्याकरण संबंधि अप्रमेय ज्ञानका वर्तमान आर्यसमाजसे भी अधिर्व अभिमान न है ! परंतु स्वामीजीने उक्त श्लोकका जो अर्थ लिखा है वह यदि ऐसे विद्वान्के देखने में आवे जो कि स्वामीजीके चरितसे अनभिज्ञ हो तो संभव नहीं कि वह स्वामीजीकी शब्दशास्त्र सम्बन्धी योग्यताकी कदर किए विना रह सके ! वह यदि साथमें जैन सिद्धांतका भी कुच्छ ज्ञाता हो तब तो स्वामीजीकी जैनशास्त्रीय विज्ञताकी भी प्रशंसा किन शब्दोंसे करे इसका निश्चय करना हमारे लिए तो अशक्य है। __हां ! इतना तो हम अवश्य कह सकते हैं कि उक्त श्लोकका. अर्थ करके साक्षर वर्गमें स्वामीजीने जो शास्त्रीय प्रतिष्ट: प्राप्त की है. उसके उपलक्षमें वर्तमान आर्यसमाज उनें या महर्षिसे भी आगे बढ़ा देता, एवं एक " दयानंद दिग्विजय । की जगह यदि.दस वीस पचास भी दिग्विजय बना दिये जा.''