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१४३ नहीं समझा कि, जैनोंके सर्वमान्य संस्कृत और प्राकृतके अनेक ग्रंथाको छोड़कर विवेकसार जैसे रद्दी पुस्तकोंके नामसे इतना अरण्य रोदन स्वामीजीने क्यों किया ? कदापि उन्होंने वेदों से रेल-तार निकालनेकी तरह यह लीला. भी अपने श्कोको रिझाने के लिए ही की हो तो हम कह नहीं सकते ! इसलिए स्वामीजीके विवेक और सारकी समीक्षाको हम पाठकोंके. ही स्वाधीन करते हैं। कृपया वे ही इसमेंसे सार निकालनेका प्रयत्न करें । स्वामीजीने तो संसार पर बहुत उपकार किया है ! वर्तमान आर्यदल उनसे अनृणी हो सके ऐसी आशा नहीं ! क्योंकि उन्होंने चिरकाल तक जैन ग्रंथोंका अभ्यास करके उनको हठी दुराग्रही और मूखोंके बनाए हुए साबित कर दिखाया ! इस उपलक्षमें कितनेक समाजी महाशय यदि फूले न समायें तो कुछ आश्चर्य नहीं । परंतु स्वामीजीके इस मयूर वाटकका मध्यस्थ संसार पर कितना प्रभाव पड़ा है ? वह हम नहीं कह सकते। “दिगंबर-श्वेतांबर और स्वामी दयानंद "
स्वामी दयानंद सरस्वतीजीने, जैनधर्मकी दिगंबर और श्वेतांबर इन दो मुख्य शाखाओंका परस्पर स्थूल अंतर कितना है, यह बतलाने के लिए जैन मुनि श्री जिनदत्त सूरि रचित "विवेक विलास " मेसे तीन श्लोक सत्यार्थ-प्रकाशमें उद्धृत किये हैं। उनमेसे तीसरा श्लोक और उसकी स्वामीजीकृत व्याख्याके पाठको हम पाठकोंके अवलोकनार्थ यहां पर उद्धृत करतेहैं ।
न भुक्ते केवलं न स्त्री, मोक्षमेति दिगम्बरः । प्राहुरेषामयं भेदो, महान् श्वेताम्बरैः सह । ३। । * भा.-दिगबरोंका श्वेताम्बरोंके साथ इतना ही भेद है के, दिगंवर लोग स्त्री संसर्ग नहीं करते और श्वेतांबर करते