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________________ माजकरके ऋषि और महर्षि कैसे होते हैं, यह जाननेकी इच्छा जिसे हो उसे यह पुस्तक अवश्य पढ़ लेना चाहिए। इसके कितने ही अंश पढ़कर हमें खेद हुआ और क्रोध भी आ गया। सुनते हैं, अन्धे आदमी प्रायः निःशील होते हैं। परंतुं स्वामी विरजानन्द पण्डित थे। इससे उनके विषयमें कही गई कितनी ही बातोपर आश्चर्य होता है । आश्चर्य क्या, उनपर विश्वास करनेको जी नहीं चाहता। उदाहरण (१) “मनोरमा, शेखर, न्याय मुक्तावली, सारस्वत, चन्द्रिका पञ्चदशी आदि नवीन वनावटी ज्योतियोंके तुच्छ प्रकाशको अष्टाध्यायी आदि ऋपि-मुनि-कृत सूर्यग्रन्थोंके सामने (स्वामी विरजानन्द) बिलकुल व्यर्थ समझने लगे।" [पृष्ट १६] (२) " अष्टाध्यायी, महाभाग्य, व्याकरणके मुख्य ग्रन्थ हैं तथा . कौमुदी, मनोरमा आदि ग्रन्थ मनुष्यकृत और अशुद्ध हैं । तथा न्याय मुक्तावली आदि और भागवतादि पुराण, रघुवंश आदि काव्य, वेदान्तमें पञ्चदशी और नवीन सम्प्रदायी जितने ग्रंथ हैं सब अशुद्ध हैं "। [पृष्ठ १८ ] मालूम नहीं, इस चरितके लेखक लेखराम संस्कृत भाषाके कितने बड़े विद्वान् और व्याकरण, न्याय, वेदान्त, काव्य, पुराण आदिके कितने बड़े ज्ञाता थे। उनके पूर्वोक्त अवतरणोंसे तो सूचित होता है कि संस्कृत भाषा और संस्कृत शास्त्रोंसे उनका कुछ भी संपर्क न था और रहा भी होगा तो बहुत कम । जो कुछ नवीन है सभी अशुद्ध हैं, यह कहांका न्याय है। पञ्चदशी अशुद्ध! न्याय मुक्तावली अशुद्ध रघुवंश अशुद्ध! अरे भाई, कभी पढ़ा भी इनको ? यदि अशुद्ध हैं तो साधन्त सभी अशुद्ध हैं या इनके कुछ ही अंश अशुद्ध हैं ? जबानमें लगामही नहीं! यदि किसी ग्रंथका अशुद्ध होना "नवीन सम्प्रदायी" होनेपर
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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