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" अत्यंत घृणा दिलाना चाहते थे। तथा च इस कार्यकी " पूर्ति के लिये उन्होंने एक जूता रख छोड़ा था और सिद्धांत "कौमुदीके कर्ता भद्दोजी दीक्षितकी मूर्तिको वे सब विद्या"र्थियोंसे जूते लगवाते थे। क्योंकि उनका-कशन था कि " इसी नचिने संस्कृत विद्याकी कुंजी अष्टाध्याय के प्रचारको " रोकनेके लिये यह बना रक्खा है । कभी भागवत पुराणकी " पुस्तकको यह कहते हुए अपने पांव लगा देते थे कि इन " पुराणोंने ही भ्रमजाल फैलाकर लोगोंको विद्या बुद्धि और " पुरुषार्थसे हीन कर दिया है।"
सज्जनो ! उक्त लेखका एक २ अक्षर ध्यानसे पढ़ने लायक है । स्वामी दयानंद सरस्वतीजीने संसारभरके धर्मों तथा आचार्योंका घोर अनादर करना कहांसे सीखा! इस बातको समझनेके लिए उक्त दंडीजीका चरित्र बड़ा ही जीवित उदाहरण है ! दंडीजीका प्रशस्त जीवन मध्यस्थ संसारके लिए कितना आदरणीय होना चाहिए इस विषयमें हम स्वयं कुछ न कहते हुए,केवल "सरस्वती के पुस्तक परीक्षा शीर्षक संपादकीय लेखको ही यहांपर अविकल रूपसे उद्धृत कर देते हैं।
"जीवन चरित्र-इस छोटीसी, २८ पृष्टोंकी, पुस्तक स्वामी दयानंद सरस्वतीके गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वतीका चरित वर्णन है । चारेत क्या स्वामीजीक संबंध की कुछ बातोंका उल्लेख मात्र है । यह उल्लेख किस आधारपर किया गया है, यह पुस्तकमें नहीं लिखा । मूल पुस्तक उर्दू है । वह "धर्म वीर पं० लेखरामजी आर्य पथिक"की लिखी हुई है। उसीका यह हिन्दी रूपान्तर है। रूपान्तरकार है-मुन्शी. जगदम्बा प्रसाद । प्रकाशक, पण्डित शङ्करदत्त शर्मा, (शर्मा मैशीन प्रिंटिङ्ग प्रेस, मुरादाबाद)से यह एक आनेमें मिलती है ।