SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ जीको प्रतिदिन वंदना करना और आगेको १२ वां तीर्थंकर होना मानना भी प्रकाशित कर देना उचित था ! कदापि कोई कहे कि, स्वामीजी जैन ग्रंथोंसे वाकिफ नहीं थे इस लिए उन्होने कृष्णजी के संबंध में इतनी बड़ी भूल खाई है ! तत्र तो उनके शिष्य समुदायको उचित है कि वह गुरुजीकी इस महती अशुद्धिको मार्जन करके उनको उक्त कलंक से मुक्त करें ! ! !] इसके अतिरिक्त स्वामीजीका जैन साधु और तीर्थकरोको - वेश्यागामी परस्त्रीगामी और चौर आदि शब्दोंसे स्मरण करने का क्या हेतु था ? यह बुद्धिमान स्वयं विचार लेवें । एवं मतांतरीय विद्वान् और उनके लेखों की समीक्षा करते हुए स्वामीजीने जिनं मधुर शब्दोंका व्यवहार किया है उनसे तो पाठक प्रथम अच्छी तरह परिचित हो चुके हैं । परंतु इस प्रकार के शब्दों के प्रयोग करनेके कारणका अन्वेषण करते हुए इम जिस परिणामपर पहुंचे हैं उसका दिग्दर्शन करवा देना यहां कुछ आवश्यक प्रतीत होता है । महर्षि कणादका कथन है कि, " कारणगुणपूर्वकः कार्यगुणो दृष्टः " अर्थात् कारणमें जैसे गुण होते हैं वैसे ही कार्यमें आते हैं। संसार में यह बात आबाल प्रसिद्ध है कि, जैसा गुरु वैसा शिष्य अर्थात् गुरुके संस्कारोंका प्रभाव शिष्य पर अधिक पड़ता है ! शिष्यको यदि गुरुके संबंध में ग्रामोफोन की भी उपमा दी जावे तो हमारे विचारमें कुछ असंगत न होगी ! हमारे पाठक इस बातसे तो प्रायः ज्ञात ही होंगे कि, स्वामी दयानंद सरस्वतीजीके गुरु कौन थे ? कदापि किसी महानुभावको पता न भी होगा, इसलिए हम कह देते हैं कि, स्वामी दयानंदजीके गुरु थे, स्वामी विरजानंदजी दंडी अंधे ! बस, अंधेका शिष्य यदि अंधा नहीं तो एक तर्फ देखनेवालातो अवश्य होना चाहिए ! 1
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy