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करनी कठिन ही नहीं, बलाक असंभव है ! स्वामीजी जैसे समाजनेता ऐसा उपदेश करें, इससे बढ़कर और क्या दुःखकी बात हो सकती है? सत्य है ! जहां प्रकाश है वहां उसकी तहमें अंधकार भी अपना आसन जमाये बैठा है ! उद्यान में जहां मोदजनक आमोदसे भरपूर विकसित पुप्प समुदाय दर्शकोंको आनंद देता है, वहांपर उनके साथ चिपके हुए मर्मवेधी तीक्ष्ण कांटेभी हाथ फैलाये अपनी घातमें बैठे रहते हैं:! अस्तु ! अब हम प्रकृत विषयकी तर्फ अपने पाठकोंके ध्यानको आकर्षित करतेहैं।
"सत्यार्थ प्रकाश" के वारवें समुल्लासमें "स्वामीजी ने चारचाक (नास्तिक) बौद्ध और जैनमतका खंडन लिखा है ! उसमें भी चारवाक और बौद्धमतका बहुत संक्षेपसे खंडन करके अवशिष्ट भागमें जैनमतकी ही समीक्षा की है ! हम भी यहांपर " स्वामीजी " के लेख क्रमके अनुसार ही अपने विचारोंको प्रस्तुत करते हैं. सत्यार्थप्रकाश सन् १८८४. वैदिकयंत्रालयप्रयोग'
[क] स्वा०८०स०-चारवाक, आमाणक, वौद्ध और जैनभी जगत्की उत्पत्ति स्वभावसे मानते हैं. ( पृष्ठ ४००)
[ख]. भांडधूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं उनकी धूर्तता है वेदोंकी नहीं. परंतु शोक है चारवाक आमाणक बौद्ध और जैनियोंपर कि इन्होंने मूल चार वेदोंकी संहिता
को भी न सुना और न देखा और न किसी विद्वान्से पढ़ा . . इसीलिये नष्ट भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटांग वेदोंकी निंदा करने