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स्यूं पाठ उद्धृत करनेसे स्वामीनीकी सत्यताका पाठकों को अधिक परिचय मिलेगा !
विवेकसारके पृष्ठ २२७ में लिखा है कि- "राजाभियोग" राजाका हुकुम अर्थात् राजाकी आज्ञा से किसी काममें लगने से धर्मकार्य न होना, इससे धर्मकार्य न हो सके तो भी पाप नहीं लगता क्योंकि राजाज्ञा नगरदस्त है. " जैसे कोशा " पाटलीपुत्र नगर में स्थूलभद्र मुनिके पास दिक्षा पाय ( जैन शास्त्र के अनुसार जैन गृहस्थके धर्मको अंगीकार करनेके लिए प्रतिज्ञाबद्ध होकर - लेखक ) सम्यक्त्व मूलक द्वादश व्रत ( जैन गृहस्थोचित कर्त्तव्य ) पालनेवाली कोशा नाम वेश्या थी । उसको राजाने किसी धनुर्विद्या जाननेवाले को दे दिया, उस कोशाने इच्छा न रहेती भी ( राजाकी आज्ञा से उसे ) अंगीकार किया ! परंतु उस रथीके आगे ( वह ) सर्वदा स्थूलभद्र मुनिकी स्तुति किया करे ( करती रहती थी - ले. ) ( एक दिन ) वह रथी उसको रिझाने के लिये बगीचामें जाय बंगलेकी खिड़की मे उसके साथ बैठके एक बाण आमके झुमकामें वेधा ( आम्रफल के गुच्छे में मारा ) दूसरा उस वाणमें वेधा तीसरा बाण उस बाणमें ऐसा (से) वाण बाण वेधतें ( मारते ) खिड़की तक बाणकी लड़ लगाय हात ( थ ) हीसे नाम धींच के ( खैंच के ) तोडके उसको दे दिया । कोशाने भी कहा ( अब ) हमारी कला देखो (यह ) कहके एक थालीमें सरसोंकी ढेरी लगाय उसके उपर फूलों से ढकी हुई सूई खड़ी कर दिया ( दी ) उसके ऊपर खूब तरह से ( उसने ) नाच किया परंतु सूई पैरमे गड़ने
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न पाई और सरसोंकी ढेरी भी नही विखरी । यह देखके वह धनुर्धारी प्रसन्न होय बोला कि हम तेरे (री) चतुराईपर तुष्ट हैं