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________________ १२२ गंमनादि कुकर्मों में प्रवृत्त है ऐसे दुराचारीको साधु अथवाए स्वर्ग गया कहीं जैन शास्त्रोंमें लिखा हो तब तो लीला कहना ठीक हो सकता है ! परंतु ऐसा तो हमने जैनग्रंथों में कहीं लिखा हुआ नहीं देखा ! जैनग्रंथों में तो स्थानर में यह उपदेश है कि-" वरमग्गिम्मि पवेसो, वरं विसुद्धेण कम्मेणा मरणमा गहियन्वयभंगो, माजीअंखलियसीलस्स ॥" अर्थात् अमिमें जल मरना अच्छा है ! अनशनादि व्रतसे शरीरको. त्याग देना श्रेष्ट है ! परंतु ग्रहण किये हुए सन्यास-व्रतका त्याग और स्खलित शील (जिसने ब्रह्मचर्यरूप अमूल्य रत्नका. नाश किया हो ऐसे ) यतिका जीना अच्छा नहीं ! ।। सज्जनो ! स्वामीजी महाराज जिसको एक जैनमतका साधु कह कर लिखते हैं उनका नाम " स्थूलिभद्र" है ! इनको जैनधर्ममें बड़ा ही उच्चस्थान प्राप्त हुआ है इसका कारण इनका आदर्शरूप जीवन है ! इनके संबंधों जैनग्रंथों में बहुत कुछ वर्णन किया गया है ! इनके चरित्रका सांगोपांग वर्णन परिशिष्टपर्वमें श्री हेमचंद्राचार्यने किया है. इन ग्रंथोंको छोड़ कर इनके संबंध जो विवेक सारमें लिखा है उसीको यदि स्वामीजी सत्यार्थ प्रकाशमें उद्धत कर देते तो उनकी वतलाई हुई जैनमतके साधओंकी लीलाको समझनेके लिए किसीको भी कठिनता न पड़ती ! हम अपने पाठकोंको स्यूलिभद्र मुनिके चरित्रका कुछ अंश (जिसका स्वामीजीके कथनके साथ संबंध है) वर्णन करके सुनाते हैं. यह वर्णन भी हम विवेकसारसेही उद्धृत करते हैं. क्योंकि, जैन साधुओंकी लीला दिखलानके लिए आपने इसी पुस्तकका नाम लिया है ! उक्त पुस्तककी भापा यद्यपि बहुत पुराने ढंगकी है, एवं रद्दीसी है ! परंतु हम उसका परिवर्तन नहीं करते, क्योंकि, उसका ज्यूंका
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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