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१०८ अणुमात्र भी संबंध नहीं ! स्वामीजी जिस सच्चाईसे जैन सिद्धांतोंका खंडन करते हैं उसकी यह चनगी है ! परंतु वह जमाना अब बहुत दूर नहीं है जिसमें स्वामीजीकी सच्चाईकी डुगडुगी संसार भर पीटने लगेगा ! अस्तु ! प्रथम हम पाठकोंको उक्त श्लोकका अर्थ बतला देते हैं. इस श्लोकका सीधा अक्षरार्थ यह है कि,-"उसका नाम भी अच्छा नहीं जिसने मिथ्यापा झूठे त्योहारोंका उपदेश किया है ! क्योंकि इनके प्रसंगसे धर्मात्मा मनुष्योंकी भी बुद्धि पापमें संलग्न हो जाती है !" *
जिस श्लोक पर हम पीछे विचार कर आए हैं वह श्लोक इससे दो श्लोक आगेका है, अर्थात् वह २९ का है
और यह २७ का है । हमारे ख्यालमें तो उक्त श्लोकमें कोई अनुचित उपदेश प्रतीत नहीं होता. क्योंकि, निंदनीय व्यवहारों कुरीतियोंका उपदेशक मनुष्य कवीभी सभ्य संसारमें गौरवको प्राप्त नहीं होता!जो सभ्य समुदायकी दृष्टिसे तिरस्कृत है,वह सचमुचही नाम लेनेलायक नहीं! जिन सज्जनोंको संस्कृत माकृतका ज्ञान बहुत थोड़ा है उनसे भी हमारा निवेदन है कि, वे भी किसी योग्य विद्वान्से मिलकर स्वामीजीके लिखे हुए उक्त श्लोकके अर्थकीसत्यताका अवश्य निश्चय करें ! स्वामीजी पष्टिशतकके उक्तः प्राकृत श्लोककी समीक्षा बड़ी ही सभ्यतापूर्वक करते हैं ! आप कहते हैं कि,-"इससे यह सिद्ध होता है कि सबसे वैर विरोध निंदा ईपी आदि दुष्ट कर्मरूप सागरमें डुवानेवाला जैन मार्ग है" हमको स्वामीजीके इन शब्दोंको पढ़कर यह विचार हो रहा है कि, स्वामीजीने यह समीक्षा लिखते समय मनुष्यत्वको कहांपर रख छोड़ा होगा ? सज्जनो स्वामी दयानंद सरस्वतीजी *नामापि तस्याशुभं येनोपर्दिशितानि रजःपर्वादीनि मिथ्यात्वपर्वाणि 'येषामनुषंगात्सं योगात् धर्मवतां सतामपि पापमतिर्भवति"इत्यवचरिकारः।।