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न कि, वस्तु स्थितिकी दृष्टिसे । ऐसा उक्त ग्रंथके पाठ करनेसे मालूम होता है. . . . . . . , सज्जनो! हमने सरल रीतिसे आपको उक्त श्लोकका अर्थ-भाव बतला दिया है, अब स्वामीजीका किया हुआ अर्थ
और उसकी समीक्षाके साथ इसकी तुलना करनी आपका फर्ज है । स्वामीजी अपने श्रीमुखसे जैनोंको पामर ( नीच) कहते हैं ! परंतु हम जैनोंसे निवेदन करते हैं कि, इसके उत्तरमें वे स्वामीजीको उत्तमपुरुष कह कर ही याद किया करें! क्योंकि
"जो तुझको कांटे बोये, उसको वो तूं फूल । वे कांटे उसके लिए, तुझे फूलके फूल ॥"
[ट] . स्वा० द० स०- . *नामपि तस्स असुह, जेण निर्दिठाई मिच्छपवाई। जोस अणुसंगाओ, धम्माणवि होई पावमई ॥षष्टिशतक २७॥
जो जैनधर्मसे विरुद्ध धर्म हैं वे सब मनुष्योंको पापी करनेवाले हैं इसलिये किसीके अन्य धर्मको न मान कर जैन धर्मको ही मानना श्रेष्ठ है ॥ २७ ॥ ( समीक्षक ) इससे यह सिद्ध होता है कि सबसे वैर विरोध निंदा ईर्षा आदि दुष्ट कर्म रूप सागर, डुवानेवाला जैन मार्ग है जैसे जैनी लोग सवकै निंदक है वैसा कोई भी दूसरामतवाला महा निंदक और अधर्मी न होगा-इत्यादि [स. प्र.पृ. ४३१]
[ ] समालोचक-सज्जनो! "जो जैन"-से लेकर-"श्रेष्ठ है", तकका लेख स्वामीजीका निजका है, उक्त श्लोकके साथ उसका असत्यार्थ प्रकाशमें यह गाथा अस्त व्यस्त और अशुद्ध लिखी हुई है !