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होना आवश्यक ही है । क्यों कि निष्पक्षता और सत्य पराय - णता महात्मा के जीवनका एक अनूठा भूषण है ! परंतु स्वामीजी महाराजके ग्रंथोंका जब हम अन्वेषण करते हैं तब हमारी यह आशा निराशा के रूपमें परिणत हो जाती है !
स्वामीजी के ग्रंथों में बहुतसी बातें ऐसी भी दृष्टिगोचर होती हैं, जो इनके प्रशस्त जीवनको धब्बा लगा रही हैं ! इनके निष्पक्ष और सत्यमय शुभ्र जीवनमें कालिमा रूप हो रही हैं ! इनके स्वर्णमय जीवनको सीसेकी तरह कलंकित कर रही हैं ! उदाहरणार्थ थोडेसे वचन नीचे लिखते हैं.
"स्वामीजीकी मधुर भाषाका नमूनां"
(१) " जो जीव ब्रह्मकी एकता जगत् मिथ्या शंकराचार्यका निज मत था तो वह अच्छा मत नहीं और ज़ो जैनियोंके खंडन के लिये उस मतका स्वीकार किया हो तो कुछ अच्छा है " [पृष्ठ २८७]
(२) " आंखके अंधे गांठके पूरे उन दुर्बुद्धि पापी स्वाथीं " [ पृष्ठ ३१ ]
(३) " क्यों भूसता है " [ पृष्ठ १२१ ] (४) " वाहरे झूठे वेदांतियो " [ पृष्ठ २३५ ] ( ५ ) " गडरिये के समान झूठे गुरु " [ पृष्ठ २८०] (६) " जिसके हृदय की आंखे फुट गई हों [पृष्ठ २९२] (७) "उन निर्लज्जोंको तनिक भी लज्जा नहीं आई " [ पृष्ठ २९८ ]
(८) " मुनिवाहन भंगी कुलोत्पन्न यावनाचार्य यवनं कुलोत्पन्न शठकोपनामक कंजर " [ पृष्ठ २९९ ] (९) " अंधे धूर्त्त " [ पृष्ठ ३०५ ]