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के ग्रंथोंका खंडन, या उनकी भूले निकालनेका नहीं है 1 किंतु हमारा अभिप्राय स्वामी " दयानन्द " और " जैनधर्म" के संबंधमें अपने निष्पक्ष विचारों को मध्यस्थ जनसमाजके समक्ष प्रकट करनेका है, इसलिये हम अपने पाठकोंसे सविनये निवेदन करते हैं कि, वे हमारे मध्यस्थ विचारों को मध्यस्थ दृष्टिसे ही अवलोकन करें.
सज्जनो ! स्वामी " दयानन्द सरस्वतीजी " बड़े सत्यवक्ता और निर्भय पुरुषथे ! वैदिक धर्ममें इनकी असीम श्रद्धा अभीतक लोगोंको मुग्ध कर रही है ! आज भारत वर्षके कोने कोनेमें वैदिक धर्मका नाद सुनाई देना स्वामीजी के ही उद्योग का फल है ! स्वामीजीका जीवन निस्संदेह सत्यता और परोपकारताके संचेमें ढला हुआ था ! वर्तमान आर्यजनतामें इनके अधिक सन्मान का यह भी एक मुख्य कारण है | स्वामीजी हमारी श्रद्धाके मुख्य भाजन हैं ! हमसे जितनी इनकी प्रशंसा हो सके थोड़ा है ! परंतु विचार शून्य अत्यंत श्रद्धालुपना भी गुणके बदले दोष रूप हो जाता है ! दृष्टिरागको छोड़कर गुणानुराग ही उन्नति का मजबूत पाया है ! अतः "शत्रोरपि गुणा वाच्या दोपा वाच्या गुरोरपि" इस न्याय के अनुसार निष्पक्षभावसे अपने विचारोंको जनसमाजमें प्रकाशित करना मनुष्यका प्रथम कर्तव्य है, इसलिये स्वामीजी जैसे पवित्रामा प्रशस्त लेखोंकी मीमांसाके लिये कर्तव्य परायण अपनी लेखिनीको श्रम देना अहो भाग्य समझते हुए हम प्रस्तुत विषयपर विचार करते हैं. हम लिख चुके हैं कि, स्वामी " दयानन्द " सरस्वतीजीकी वैदिक धर्म प्रियता, सत्य परायणता, और निष्पक्षताका नाद भारत वर्षके अतिरिक्त अन्य देशोंमें भी खूब बना और बई रहा है। वास्तविकमें ऐसे महात्माके जीवनमें इस बातय ।