SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पचित न, देवगतिव्यतिरिकगवित्रपसम्ममायुषोपरिवाना. मणुगोपादानबुलयनुत्पतेः नका परिवि खेत्ताई भागबंधे विहोरसम्मतं । अणुवर महबदाई प नहा देवागं मोत। (गोम्मटसार कर्मकांड गाथा नं० १६५) __ (धवला पृष्ठ १६३) अर्थ-जिन मनुष्यों ने मिथ्याष्टि भावस्था में तिर्यच मायु का बन्ध कर लिया। पीछे सभ्यर्शन के साथ देश संयम को भी प्रा कर लिया। ऐसे मनुष्य यदि सात प्रकृतियों का क्षय मरण करें तो रतियंचों में क्यों उत्पन्न नहीं होंगे वैसी अवस्था में उन तियेचा अपयांत अवस्था में देश संयम अर्थात पौष गुणस्थान भी पाया जायगा ? शाके उत्तर में भवनाकार कहते हैं- कि नहीं पाया जाता क्योंकि देवगति को होकर शेष तीन गति सम्बन्धी पायु बम्प युक्त जीवों के अणुप्रोग्रहण करने को बुरी नहीं होती। इसके प्रमाण में पवनाकार ने गोम्मटसार कर्मकांड की गाथा का प्रमाण भो दिवाकिनारों गतियों को वायु के बंध जाने पर भी सम्यम्द. शन हो सकता है परन्तु देवाय बर को छोड़कर शेष तीनों गति सम्मान्धी पायुषन्ध होने पर या जीव पणुब पोर महास कोण नीर साहै। इस कान से दो बातों का खुमासा हो जाता है एक बार
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy